ट्रंप-जेलेंस्की 'कहासुनी' से सबक
यूक्रेन को अमेरिका से बड़ी उम्मीदें थीं

अब ट्रंप मौके का फायदा उठाना चाहते हैं
यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लादिमीर जेलेंस्की के साथ व्हाइट हाउस में बड़ा कांड हो गया! अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने उनके साथ जैसा बर्ताव किया, वह किसी गली-मोहल्ले की बहस जैसा दृश्य था। प्राय: बड़े नेताओं के बीच किसी गंभीर मुद्दे को लेकर तकरार हो जाती है, लेकिन दो राष्ट्राध्यक्षों की 'मुलाकात' को इस तरह सार्वजनिक नहीं करना चाहिए था। खासकर डोनाल्ड ट्रंप को थोड़ा संयम दिखाना चाहिए था। ट्रंप-जेलेंस्की 'कहासुनी' से किसी को सबसे ज्यादा खुशी हो रही है तो वे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन हैं। रूसी मीडिया में हर्ष की लहर है। यूक्रेन को अमेरिका से बड़ी उम्मीदें थीं, लेकिन ट्रंप ने सब पर पानी फेर दिया। खुद जेलेंस्की उस घड़ी को कोस रहे होंगे, जब उन्होंने पश्चिमी देशों के भरोसे रूस से भिड़ंत मोल ली थी। उन्हें तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने बड़े-बड़े ख्वाब दिखाए थे। अब अमेरिका ने मुंह मोड़ लिया। ट्रंप यूक्रेन के दुर्लभ खनिजों के दोहन में अपने देश की साझेदारी चाहते हैं, जबकि जेलेंस्की सुरक्षा की गारंटी चाहते हैं। इसी बात पर मामला बिगड़ गया और जेलेंस्की बहुत ज़लील होकर व्हाइट हाउस से निकले। इस संपूर्ण घटनाक्रम में कई सबक छिपे हैं। अपने देश की सुरक्षा दूसरों के भरोसे नहीं की जा सकती। जेलेंस्की को उम्मीद थी कि वे पश्चिमी देशों के सहारे रूस को धूल चटा देंगे और इतिहास में किसी महानायक की तरह याद रखे जाएंगे। अब हालात काबू से बाहर जा चुके हैं। यूक्रेन के पास न इतने हथियार हैं, न सैन्य बल और न इतने संसाधन कि वह अपने बूते रूस से घुटने टिकवा दे। अब ट्रंप मौके का फायदा उठाना चाहते हैं। उनकी नजर यूक्रेन की 'संपदा' पर है, जिससे वे अमेरिका का खजाना भरना चाहते हैं।
याद करें, कारगिल युद्ध में जब हमें हथियारों और गोला-बारूद की जरूरत थी, तब हमारे कथित मित्र देशों का रवैया कैसा था? तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल वीपी मलिक इसका खुलासा कर चुके हैं। इसी तरह जब दिसंबर 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बांग्लादेश) में आम जनता पर पाकिस्तानी फौज अत्याचार कर रही थी, तब अमेरिका ने उसे फटकार लगाने के बजाय भारत को अपने सातवें बेड़े की धमकी दी थी। अमेरिका एक ओर तो आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई करने का अपना संकल्प दोहराता रहता है, दूसरी ओर पाकिस्तान को वित्तीय सहायता देता है। पाक उस राशि का एक बड़ा हिस्सा भारतविरोधी गतिविधियों और आतंकवाद में लगाता है। क्या यह अमेरिका का पाखंड नहीं है? जब डोनाल्ड ट्रंप राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रचार में व्यस्त थे, तब भारत में कई लोग उनकी जीत की कामना कर रहे थे। कुछ उत्साही लोग उनके लिए हवन करते दिखाई दिए थे। ट्रंप ने चुनाव जीतते ही भारत के खिलाफ बयानबाजी शुरू कर दी थी। वे भारतीय उत्पादों पर अधिक शुल्क लगाने की बात कहकर अपने देश में लोकप्रियता हासिल करने का दांव चल रहे थे। उन्होंने अवैध प्रवासियों को जंजीरों में जकड़ कर अपने सैन्य विमान से भारत भेजा था। 'मित्र राष्ट्र', 'दोस्त', 'मधुर संबंध' जैसे शब्द सुनने में बहुत अच्छे लगते हैं। बात जब अमेरिका के साथ 'मैत्री' की हो तो भारतीय कुछ ज्यादा ही उम्मीदें लगा लेते हैं। जबकि सच्चाई यह है कि अमेरिका हमेशा अपना फायदा देखता है। अब यूक्रेन भारी मुसीबत में है तो अमेरिका उसकी मजबूरी में 'मौका' देख रहा है। उसका यह पैंतरा नया नहीं है। वह भविष्य में भी इसी नीति का पालन करेगा। इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, तकनीक और सभी महत्त्वपूर्ण मामलों में देश का 'आत्मनिर्भर' होना बहुत जरूरी है। दुनिया हमारा तभी सम्मान करेगी, जब देश शक्तिशाली होगा। जेलेंस्की का यूक्रेन की राजनीति में जिस तरह उदय हुआ और वे अपने देश को युद्ध की ओर लेकर गए, उससे बड़ा सबक यह मिलता है कि देश की बागडोर अगंभीर, अदूरदर्शी और नौसिखिए शख्स के हाथ में कभी नहीं सौंपनी चाहिए।