आत्मा ही कर्मों की कर्ता और भोक्ता है: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी

कर्म अपना फल देने में स्वतन्त्र हैं, परतन्त्र नहीं

आत्मा ही कर्मों की कर्ता और भोक्ता है: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी

शुभाशुभ कर्मों का फल मिलता है

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी ने बुधवार को अपने प्रवचन में कहा कि जैन कर्म-सिद्धान्त के अनुसार कर्म अपना फल देने में स्वतन्त्र हैं, परतन्त्र नहीं। 

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इस मान्यता के अनुसार बँधे हुए कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर स्वयं उदयावस्था में आकर अपना फल प्रदान करते हैं। कर्मों के फलदान का अर्थ विपाक है। ‘विपाक यानी विशिष्ट पाक’ जो कि बाह्य परिस्थितियों एवं आन्तरिक शक्तियों की अपेक्षा रखकर अपना फल देते हैं। 

इसे दूसरे शब्दों में कहें कि द्रव्य, क्षेत्र काल एवं भाव की अपेक्षा रखकर ही कर्म अपना फल देते हैं। कर्मों का फल कषायों की तीव्रता एवं मन्दता पर निर्भर करता है। जिस प्रकार भोजन शीघ्र न पचकर, जठराग्नि की तीव्रता मन्दता के अनुसार पचता है, उसी प्रकार कषायों की तीव्रता व मन्दता के अनुरूप ही शुभाशुभ कर्मों का फल मिलता है। 

तीव्र कषायों के साथ बँधे हुए अशुभ कर्मो का फल तीव्र तथा अधिक मिलता है। मन्द कषायों के साथ बँधने वाले कर्मों का फल मन्द और अल्प मिलता है। शुभाशुभ परिणामों के प्रकर्षापकर्ष के अनुरूप ही कर्मों का शुभाशुभ फल मिलता है। यह कोई अनिवार्य नहीं कि कर्म अपनी स्थिति पूर्ण होने पर ही फल दे। जिस प्रकार आम आदि फलों को विशेष प्रकार के साधनों द्वारा पकाकर समय पूर्व ही रसदार बना लेते हैं, उसी प्रकार स्थिति पूर्ण होने के पूर्व ही विशेष तपश्चरण आदि के द्वारा, कर्मों को पका देने पर, वे अपना फल असमय में भी देते हैं।

आचार्य श्री ने कहा की एक समय में बँधे हुए कर्म एक साथ फल नहीं देते, बल्कि अपने-अपने उदय क्रमानुसार ही अपना फल प्रदान करते हैं। कर्म अपने अवान्तरभेदों में परिवर्तित हो सकते हैं। जैसे साता वेदनीय कर्म असाता वेदनीय रूप फल दे सकता है अथवा शुभ नाम-कर्म अशुभ नाम-कर्म रूप फल दे सकता है, किन्तु चारों आयु कर्म, दर्शन मोहनीय और चरित्र मोहनीय इसके अपवाद हैं। वे अपना फल स्वमुख से ही देते हैं, अर्थात एक आयु दूसरी आयु रूप नहीं हो सकते। 

इसी प्रकार दर्शन-मोहनीय और चरित्र-मोहनीय परस्पर बदलकर अपना फल प्रदान नहीं कर सकते। समत्व की साधना के लिए व्यक्ति कोे कर्म सिद्धांत पर अटूट आस्था रखते हुए जान लेना चाहिए कि आत्मा ही कर्मों की कर्ता और आत्मा ही कर्मों की भोक्ता है। जितने भी सुख अथवा दुख जीवन में आ रहे हैं, वे सब कर्मों के अधीन हैं।

सभा में मुनि महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी  व परमप्रज्ञाश्रीजी आदि उपस्थित थे।

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