आत्मा सच्चिदानंद और शाश्वत सुखों से परिपूर्ण है: साध्वी हर्षपूर्णाश्री
'हमारी आत्मा विभाव दशा में जी रही है लेकिन उसे स्वभाव दशा में लाना है'

'दुख संयोग जन्य है जो कि हमेशा नहीं रहता है'
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के जिनकुशलसूरी जैन दादावाड़ी ट्रस्ट बसवनगुड़ी के तत्वावधान में चातुर्मास हेतु विराजित साध्वी हर्षपूर्णाश्रीजी ने अपने प्रवचन में कहा कि हमने अपने शरीर को अपना माना है, लेकिन हमारी अपनी तो सिर्फ आत्मा है। आत्मा पूर्ण है लेकिन हमारा शरीर अपूर्ण है जो की अपना नहीं है। आत्मा तो सच्चिदानंद है, जो कि शाश्वत सुखों से परिपूर्ण है।
हमारी आत्मा विभाव दशा में जी रही है लेकिन उसे स्वभाव दशा में लाना है। हमारी आत्मा ही हमारा घर है, शरीर तो किराए का मकान है जिसको सजाने संवारने के लिए हम रात-दिन मेहनत करते हैं, लेकिन जो आत्मा अपनी है उसके लिए हम कुछ भी नहीं कर रहे हैं।दुख संयोग जन्य है जो कि हमेशा नहीं रहता है। सिद्वावस्था में कोई दुख नहीं है, इसमें तो सिर्फ शाश्वत सुख है जो कभी नहीं जाता है। सभी आत्माएं ज्ञान, दर्शन और चरित्र से परिपूर्ण है। सिद्धों की आत्मा रत्नत्रयी से परिपूर्ण है, जबकि हमारी आत्मा रत्नत्रयी से अपूर्ण है, इस पर कर्मों का आवरण छाया हुआ है।
जब यह आवरण हटेगा तो हम भी अपनी सिद्धावस्था को प्राप्त कर लेंगे। हमारी आत्मा ने अभी तक विभाव दशा का आसास्वादन किया है। लेकिन आत्मा को स्वभाव दशा की ओर मोड़ना है।
साध्वीश्री ने कहा कि परमात्मा महावीर के साधना काल में उनको अनेक कष्ट परिषह आए लेकिन उन्होंने उन कर्मों की हंसते-हंसते निर्जरा की। हमने पूर्व में जो कर्म किए हैं उन्हें हमें भोगना ही है। हर पल हमारी आत्मा सतत सात कर्मों का बंध कर रही है। हमें कर्म बंध करते समय बहुत सावधानी रखनी चाहिए।
जो कर्म हम हंसते हुए बांध लेते हैं, लेकिन उन कर्मों को हमें भोगना ही पड़ेगा, बिना भोगे उन कर्मों से हमें छुटकारा नहीं मिलेगा।