विलय की राह पर क्यों ये स्कूल?

प्राइवेट स्कूल एक मजबूत विकल्प बनकर उभरे हैं

विलय की राह पर क्यों ये स्कूल?

इसके पीछे उनके शिक्षकों की कड़ी मेहनत है

उत्तर प्रदेश में कम नामांकन वाले सरकारी स्कूलों के विलय संबंधी फैसले के खिलाफ कई शिक्षकों और संगठनों के विरोध प्रदर्शन से ऐसे सवाल पैदा होते हैं, जिनकी ओर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। सरकार लगभग 5,000 सरकारी प्राथमिक स्कूलों का विलय कर रही है। उसके फैसले को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी वैध ठहरा दिया है। इससे पहले, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकारी स्कूलों के विलय का विरोध हुआ था। सवाल है- सरकारें इन स्कूलों का विलय क्यों करती हैं? जवाब है- इनमें विद्यार्थियों की संख्या बहुत कम होती है। कई स्कूल तो ऐसे हैं, जहां विद्यार्थियों की संख्या से ज्यादा शिक्षकों की संख्या है! इन स्कूलों पर सरकारें अरबों रुपए खर्च कर रही हैं। इसके बावजूद नतीजा यह है! अगर समय रहते पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारी होती, नए प्रयोग किए होते और बच्चों को प्रोत्साहन दिया होता तो यह नौबत ही न आती। भारत में सरकारी स्कूलों के हालात किसी से छिपे हुए नहीं हैं। क्या वजह है कि सरकारों द्वारा भारी-भरकम राशि खर्च किए जाने के बावजूद सरकारी स्कूल पिछड़ते जा रहे हैं, जबकि प्राइवेट स्कूल, जिनमें से ज्यादातर के शिक्षकों का वेतन बहुत कम होता है, के पास 'उपलब्धि' दिखाने के लिए बहुत कुछ होता है? हमें इस पर विचार करना चाहिए। कुछ लोग सरकारी प्राथमिक स्कूलों में दाखिलों की संख्या में गिरावट आने की बहुत अजीब वजह बताते हैं। उनका मानना है कि 'कुल प्रजनन दर (टीएफआर) में गिरावट आने से ऐसा हो रहा है ... पहले जिन सरकारी स्कूलों में बैठने के लिए जगह बड़ी मुश्किल से मिलती थी, आज वे सुनसान होते जा रहे हैं।' अगर ऐसा है तो उन गांवों से प्राइवेट स्कूलों की बसें भर-भरकर क्यों जा रही हैं?

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भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में टीएफआर में इतनी गिरावट भी नहीं आई है। अस्पतालों का पांच-छह साल पुराना रिकॉर्ड देखेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा कि ग्रामीण और शहरी, दोनों क्षेत्रों में रोजाना हजारों बच्चों का जन्म हुआ था। आज वे बच्चे स्कूल जा रहे होंगे। अगर उनका दाखिला सरकारी प्राथमिक स्कूलों में कराया जाता तो निश्चित रूप से नामांकन में बड़ी बढ़ोतरी देखने को मिलती। ऐसा नहीं हो रहा है तो स्पष्ट है कि प्राइवेट स्कूलों का पलड़ा भारी है। एक आम आदमी, जो हर महीने बमुश्किल दस-पंद्रह हजार रुपए कमाता है, वह भी चाहता है कि उसके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ें। यह सोच क्यों पैदा हुई? बेशक लोगों को प्राइवेट स्कूलों से कई शिकायतें हैं। उनके शुल्क में बढ़ोतरी को लेकर हर साल विरोध प्रदर्शन होते हैं। उस समय अभिभावक सरकारों से अपील करते हैं कि वे हस्तक्षेप करें और शुल्क कम करवाएं। उनकी इस मांग को गलत नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि कुछ स्कूलों का शुल्क काफी ज्यादा होता है। हालांकि अभिभावक कभी इस बात के लिए बड़ा आंदोलन नहीं करते कि सरकारी स्कूलों की ओर भी कुछ ध्यान दिया जाए, उनकी गुणवत्ता सुधारी जाए, सुविधाएं बढ़ाई जाएं। जैसे ही प्राइवेट स्कूल अपने शुल्क में थोड़ी-सी कटौती कर देते हैं, विरोध प्रदर्शन बंद हो जाते हैं। कई जगह तो प्राइवेट और सरकारी स्कूल आस-पास ही स्थित होते हैं। एक ओर जहां प्राइवेट स्कूलों में सुबह बच्चों की लंबी कतारें लगी होती हैं, वहीं सरकारी स्कूलों में थोड़े-से बच्चे दिखाई देते हैं। ऐसा ही नज़ारा छुट्टी के समय होता है। सरकारी स्कूलों से अभिभावकों का मोहभंग रातोंरात नहीं हुआ है। प्राइवेट स्कूल एक मजबूत विकल्प बनकर उभरे हैं तो इसके पीछे उनके शिक्षकों की कड़ी मेहनत है। उनके योगदान को स्वीकार करना होगा। जिन इलाकों में सरकारी स्कूल बहुत अच्छे नतीजे दे रहे हैं, वहां अभिभावक अपने बच्चों का उनमें दाखिला भी करवा रहे हैं। आज गुणवत्ता ज्यादा मायने रखती है। जो स्कूल इसकी ओर ध्यान देंगे, वहां बच्चे जरूर आएंगे।

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