भारतीय संस्कृति में चित्र की नहीं, चरित्र की पूजा होती है: संतश्री वरुणमुनि
चरण भी वही वंदनीय और पूजनीय बनते हैं

सर्वत्र ज्ञानी सद्गुणी और चरित्र संपन्न व्यक्ति की ही पूजा होती है
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के गांधीनगर गुजराती जैन संघ में चातुर्मासार्थ विराजित श्रमण संघीय उपप्रवर्तक पंकजमुनिजी की निश्रा में मुनि डॉ. वरुणमुनिजी ने कहा कि युग की आदि करने वाले अनंत उपकारी परमात्मा प्रभु श्री आदिनाथ भगवान को हम वंदन-नमन करते हैं, जिन्होंने जगत के जीवों को संसार के मार्ग के साथ दान, शील, तप भावना और ज्ञान, दर्शन,चरित्र, तप रूपी मोक्ष मार्ग का दिग्दर्शन कराया।
ज्ञान और दर्शन दो चरण हैं, चरित्र काया है और तप जीवन का शिखर कलश है। भारतीय संस्कृति में चित्र की नहीं, चरित्र की पूजा होती है। चरण भी वही वंदनीय और पूजनीय बनते हैं, जो चरित्र से समुज्वल है, जिनका जीवन त्याग से ओतप्रोत है, जिनके जीवन में इंद्रिय संयम है।सर्वत्र ज्ञानी सद्गुणी और चरित्र संपन्न व्यक्ति की ही पूजा होती है जिसको सम्यक दर्शन, श्रद्धा, विश्वास नहीं है, उन्हें सच्चा ज्ञान प्राप्त नहीं होता और सच्चे ज्ञान के बिना चरित्र आदि गुण नहीं सधते तथा चरित्र गुण के बिना कर्म मुक्ति नहीं होती और कर्म मुक्ति के बिना निर्वाण की प्राप्ति नहीं होती।
तैरना जानते हुए भी यदि कोई जलप्रवाह में कूद कर काय चेष्टा न करें, हाथ-पांव न हिलाएं तो वह प्रवाह में डूब जाता है। वैसे ही धर्म को जानते हुए भी यदि कोई उसका आचरण न करें, तो हमारा कल्याण नहीं होगा।
यदि किसी का धन चला जाए तो वह फिर कमाया जा सकता है किंतु यदि चरित्र चला कर जाए तो उसका सर्वस्व नष्ट हो जाता है। अतः हम अपने जीवन में सद्गुणों को धारण करें, सच्चरित्र का आलंबन लेकर जीवन को उत्कृष्ट बनाएं, तभी हम आत्म कल्याण के मार्ग पर प्रशस्त हो सकते हैं।
मुनिश्री रुपेशमुनिजी ने भजन की प्रस्तुति दी। संचालन संघ के अध्यक्ष राजेश भाई मेहता ने किया। उपप्रवर्तकश्री पंकजमुनि जी ने मंगल पाठ किया।