कैग रिपोर्ट: गहरे भंवर में 'आप'
जनता बड़े-बड़े सम्राटों का 'भ्रम' दूर कर चुकी है

लोकतंत्र में नेता से जनता का विश्वास जाता रहे तो पीछे क्या बचता है?
दिल्ली की पूर्ववर्ती 'आप' सरकार की आबकारी नीति पूर्व मुख्यमंत्री एवं पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल का जल्दी पीछा छोड़ने वाली नहीं है। विधानसभा में पेश की गई कैग रिपोर्ट के इस खुलासे कि 'दिल्ली सरकार को वर्ष 2021-2022 की आबकारी नीति के कारण 2,000 करोड़ रुपए से ज्यादा का नुकसान हुआ', ने 'आप' को आड़े हाथों लेने के लिए भाजपा को एक और मौका दे दिया है। भले ही पूर्व मुख्यमंत्री आतिशी यह कहकर आबकारी नीति का बचाव करें कि 'उससे पुरानी नीति भ्रष्टाचार और तस्करी से ग्रस्त थी', इस संपूर्ण घटनाक्रम से केजरीवाल की छवि को गहरा धक्का लगा है। कभी ईमानदारी, सादगी, सच्चाई, नैतिकता और न्याय की बातें करते हुए तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर हमला बोलने वाले केजरीवाल जब खुद आरोपों के भंवर में फंसे तो ऐसे फंसे कि विधानसभा चुनाव में अपनी सीट भी हार गए। इतिहास गवाह है, शराब की बोतलों में बड़ी-बड़ी सल्तनतें डूब गईं। अगर केजरीवाल इतिहास से सबक लेते तो इस साल दिल्ली विधानसभा चुनाव के नतीजे कुछ और ही होते। अरविंद केजरीवाल के 'गुरु' अन्ना हजारे भी स्वीकार कर चुके हैं कि शराब की दुकानें खोलने की वजह से लोगों ने उन्हें सबक सिखाया। हालांकि बात सिर्फ इतनी नहीं है। 'आप' सरकार के पतन में आबकारी नीति ने बड़ी भूमिका यकीनन निभाई थी। इसके अलावा भी कई कारण थे, जिनकी ओर 'आप' के शीर्ष नेतृत्व ने कोई ध्यान नहीं दिया था। जब केजरीवाल का भारतीय राजनीति में उदय हुआ तो लोगों ने उनसे बहुत ज्यादा उम्मीदें लगा ली थीं। वे जिस तरह कागजात लहराते हुए अन्य पार्टियों के नेताओं की ईमानदारी पर सवाल उठाते थे, उससे उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की बनी, जो देश की दशा और दिशा, दोनों बदलने में सक्षम था। जिन लोगों ने उनके साथ खड़े होकर आंदोलन किया, नारे लगाए, उन्हें भी लगा था कि अब भ्रष्टाचार का अंत निकट है।
अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली की सत्ता में आकर जो फैसले लिए, उनसे लोगों को कहीं-न-कहीं यह महसूस हुआ कि मुख्यमंत्री महोदय उन वचनों एवं आदर्शों से दूर होते जा रहे हैं, जिनका पहले जिक्र करते नहीं थकते थे। उन्होंने जिस कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए इतना हंगामा खड़ा किया था, बाद में उसी के साथ गठबंधन कर लिया। वे इंडि गठबंधन के नेताओं के साथ मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाने लगे थे। उन्होंने और 'आप' विधायकों ने सरकारी सुविधाएं भी लीं, जिससे सादगी के दावे धरे रह गए। केजरीवाल की छवि को एक और बड़ा नुकसान मुख्यमंत्री आवास पर होने वाले खर्चों से हुआ, जिसे भाजपा ने 'शीशमहल' करार दिया था। अगर केजरीवाल सत्ता में आने के पहले ही दिन इस बात का संकल्प ले लेते कि हर सूरत में सादगी का सख्ती से पालन करेंगे, तो भाजपा को उन पर हमला करने का ऐसा मौका ही न मिलता। बेहतर होता कि वे मुख्यमंत्री आवास का एक हिस्सा जरूरतमंद बच्चों की पढ़ाई-लिखाई के लिए सौंप देते और खुद की जरूरतें बहुत सीमित रखते। हमारे स्वतंत्रता संग्राम के कई नेताओं ने तमाम संसाधन होने के बावजूद सीमित चीजों में गुजारा किया था। उनके जीवन में सादगी और पारदर्शिता थी। उस दौरान कई मुद्दों को लेकर मतभेदों के बावजूद जनता को उन पर भरोसा था कि हमारे नेता सादगी और ईमानदारी के मामले में किसी से समझौता नहीं करेंगे। 'शीशमहल' विवाद ने जनता के बीच इस धारणा को मजबूत किया कि अब केजरीवाल महान आदर्शों की बातों से कोसों आगे निकल चुके हैं, 'आप' भी अन्य पार्टियों के ढर्रे पर चल पड़ी है। दिल्ली विधानसभा चुनाव में 'आप' की हार सभी पार्टियों के लिए एक सबक है। सुधार की बड़ी-बड़ी बातें करना, आदर्शों का प्रचार करना, जनता को सुनहरे सपने दिखाना एक सीमा तक ठीक है, लेकिन खुद अपने शब्दों पर कायम नहीं रहेंगे और समय आने पर उनसे विपरीत आचरण करेंगे तो जनता आपको अर्श से फर्श पर लाने में देर नहीं लगाएगी। चाहे आप कितने ही बड़े नेता हों। याद रखें, जनता बड़े-बड़े सम्राटों का 'भ्रम' दूर कर चुकी है। लोकतंत्र में नेता से जनता का विश्वास जाता रहे तो पीछे क्या बचता है?