एकता की नींव
आज परिवार टूट रहे हैं

वैवाहिक जीवन से संबंधित समस्याएं बढ़ती जा रही हैं
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने 'एक मंदिर, एक कुआं और एक श्मशान भूमि' के आदर्श को अपनाकर सामाजिक सद्भाव के लिए जो आह्वान किया, वह अत्यंत प्रासंगिक है। ये तीनों स्थान हर हिंदू के लिए बहुत मायने रखते हैं। जब इतिहास के किसी कालखंड में समाज में भेदभाव पैदा हुए (कारण जो भी रहे हों) तो मंदिर, कुआं और श्मशान भूमि भी अलग-अलग हो गए थे। हमारे समाज सुधारकों ने उन भेदभावों की जंजीरें तोड़ने के लिए वर्षों संघर्ष किया था। इसके बावजूद कई गांवों में अलग-अलग जातियों के मंदिर, कुएं और श्मशान देखने को मिलते हैं। उन्हें उनके नाम के बजाय खास पहचान के कारण जाना जाता है। इस वजह से समाज कहीं-न-कहीं कमजोर हुआ और उसका फायदा विदेशी आक्रांताओं ने उठाया था। उन्होंने भेदभाव की खाई को और गहरा किया, ताकि उनकी सत्ता के लिए कोई खतरा न रहे। अंग्रेजों ने 'फूट डालो, राज करो' की नीति अपनाते हुए देश में विभाजन के बीज बोए थे। मंदिर हमारे आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक चेतना के केंद्र हैं। ये सामाजिक पुनर्जागरण के महत्त्वपूर्ण स्थान बन सकते हैं। इसी तरह, 'एक कुआं' सामाजिक भेदभावों को दूर करने में अत्यंत सहायक सिद्ध होगा। 'एक श्मशान भूमि' होने से सामाजिक समरसता में बढ़ोतरी होगी। जब कभी समाज में सद्भाव और एकता पैदा करने की बात आती है तो तरह-तरह के सुझाव दिए जाते हैं। वे अपनी जगह सही हो सकते हैं। हालांकि जब उन्हें धरातल पर लागू करते हैं तो तुरंत ही बड़े परिणाम नहीं मिलते। उनका विरोध भी हो सकता है।
समाज को एकजुट और मजबूत करने के लिए जरूरी है कि पहले ये खूबियां परिवार में पैदा की जाएं। आज परिवार टूट रहे हैं। वैवाहिक जीवन से संबंधित समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। पीढ़ियों में दूरियां देखने को मिल रही हैं। दिखावेबाजी जोरों पर है। छोटे-छोटे बच्चे मानसिक तनाव से जूझ रहे हैं। लोगों के पास अनेक सुविधाएं हैं, लेकिन वे शिकायत करते हैं कि हम जीवन जी नहीं रहे, बल्कि काट रहे हैं। अगर परिवारों का यह हाल रहेगा तो समाज किस दिशा में जाएगा? लोगों में मेलजोल घटाने और अकेलापन बढ़ाने के लिए मोबाइल फोन के अत्यधिक इस्तेमाल को जिम्मेदार माना जा सकता है। इन सभी समस्याओं का समाधान करने के लिए समाज को हर महीने किसी खास दिन बैठक करनी चाहिए। वहां हर पीढ़ी के लोग विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर चर्चा करें, अनुभवी लोगों के विचार जानें और जरूरतमंद लोगों की इस तरह मदद करें कि उनका स्वाभिमान आहत न हो। जरूरी नहीं कि ऐसी बैठकों के लिए अत्यंत भव्य प्रबंध किए जाएं। सामान्य संसाधनों के साथ सद्भावपूर्ण माहौल में भी बहुत अच्छे आयोजन हो सकते हैं। इन बैठकों में सामूहिक भोज जरूर किया जाए। इसके लिए हर घर से आटा, तेल, सब्जी और मसाले लिए जाएं और सभी लोग काम में हाथ बंटाएं। ऐसे आयोजन समाज में एकता की नींव को मजबूत करेंगे। प्राय: लोगों की शिकायत रहती है कि समाज की प्रतिभाएं जब आगे बढ़ जाती हैं और जीवन में कोई बड़ा मुकाम हासिल कर लेती हैं तो वे मदद करना तो दूर, हमारी ओर मुड़कर भी नहीं देखतीं। यह शिकायत पूरी तरह गलत नहीं है। ऐसे कई युवा हैं, जो कमजोर आर्थिक पृष्ठभूमि से थे, लेकिन जब 'कुछ बन गए' तो उन्होंने अपने समाज की कोई मदद नहीं की। यहां एक सवाल और पैदा होता है- जब उन युवाओं को मदद की जरूरत थी, तब समाज ने उनकी कितनी मदद की? ऐसे ज्यादातर मामलों में देखने को मिलेगा कि वे युवा अपने अभावों के साथ अकेले ही संघर्ष करते रहे। उनका मनोबल तोड़ने वालों की कमी नहीं थी। जब उन्हें सफलता मिल गई तो हर कोई उनसे रिश्ता जोड़ने लगा। अगर प्रतिभाओं का उपयोग समाज के हित में करना चाहते हैं तो उनकी ओर उस समय मदद का हाथ बढ़ाएं, जब उन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है।