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पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर संवाद होना चाहिए

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आज परिवार टूट रहे हैं, रिश्तों में दरारें आ रही हैं

बेंगलूरु में महालक्ष्मी नामक एक महिला की हत्या और उसके बाद शव के 50 से ज्यादा टुकड़े कर फ्रिज में रखने की घटना ने हर संवेदनशील इन्सान को अंदर तक हिला दिया। कोई व्यक्ति इतना क्रूर कैसे हो सकता है? खुद के नाखून के साथ थोड़ी-सी चमड़ी कट जाए तो बहुत दर्द होता है, लेकिन किसी की जान लेना और शव के टुकड़े-टुकड़े कर फ्रिज में रख देना ... यह तो बेदर्दी की पराकाष्ठा है, जिसकी कल्पना भी अत्यंत भयानक लगती है। 

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जिस युवक पर महिला की हत्या का आरोप लगा, उसने भी कथित तौर पर आत्महत्या कर ली! इस हत्याकांड ने श्रद्धा वाल्कर मामले की यादें ताजा कर दीं, जिसमें आफताब पूनावाला पर आरोप लगा था कि उसने युवती की हत्या कर शव के टुकड़े किए और फ्रिज में रख दिए थे! बाद में उन्हें एक-एक कर जंगल में फेंक दिया! इतनी क्रूरता, इतनी निर्दयता ... वह भी उस हिंदुस्तान में जिसकी संस्कृति में चींटी तक के प्राणों की परवाह की गई है! 

जून 2023 में भी महाराष्ट्र में ठाणे जिले के फ्लैट में एक व्यक्ति द्वारा अपनी ‘लिव-इन’ पार्टनर की हत्या करने का मामला सामने आया था। आरोप है कि उस शख्स ने महिला की हत्या कर शव के टुकड़े किए, उन्हें प्रेशर कुकर में उबाला, मिक्सर में पीसा था। उसके बाद उन्हें शौचालय में बहा दिया था। किसी की हत्या कर शव को 'ठिकाने' लगाने के ऐसे विचार कहां से आते हैं? 

आफताब पूनावाला एक चर्चित ड्रामा क्राइम सीरीज देखा करता था। हत्याओं के ऐसे कई मामलों में देखा गया कि लोगों ने अपराध कथाओं से 'तौर-तरीके' सीखे थे। इन कथाओं का मकसद जनता को जागरूक करना होना चाहिए, लेकिन इन्हें जिस तरह पेश किया जाता है, उससे प्रभावित होकर कई लोग उसी तर्ज पर अपराध करते हैं।

हालांकि इसके लिए सिर्फ अपराध कथाओं, धारावाहिकों, सीरीजों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। प्राय: ऐसे मामलों की शुरुआत पारिवारिक संवादहीनता से होती है। लोग भावनाओं में बहकर 'प्रेम संबंधों' की ओर बढ़ जाते हैं। वास्तव में वह प्रेम नहीं, बल्कि दैहिक आकर्षण होता है, जिसमें लोग एक-दूसरे से बहुत ज्यादा उम्मीदें लगा लेते हैं। अभी उन्हें एक-दूसरे में सिर्फ खूबियां नजर आती हैं। समय के साथ यह आकर्षण कमजोर होने लगता है। तब खूबियों से ज्यादा खामियां दिखने लगती हैं। छोटी-छोटी बातें बड़े झगड़े का रूप ले लेती हैं। 

चूंकि ऐसे संबंध स्वेच्छा पर आधारित होते हैं, जिनमें अपने माता-पिता और परिजन को शामिल नहीं किया जाता। ऐसे में कोई समझाइश करने वाला भी नहीं होता। फिर जब किसी कारणवश बात बिगड़ती है तो क्षणिक आवेश में कुछ ऐसा हो जाता है, जिसे सुधारा नहीं जा सकता। तब पता चलता है कि यह तो बहुत गलत हो गया! अब क्या किया जाए? उस परिस्थिति में वह व्यक्ति ऐसे तौर-तरीके ढूंढ़ने की कोशिश करता है, जो उसे 'मुसीबत' से निकाल सकें। 

हालांकि अपराधी कितना ही शातिर क्यों न हो, अगर पुलिस सही तरीके से जांच करे और उसे पकड़ने के लिए ईमानदारी से कोशिश करे तो कड़ियां जुड़ती जाती हैं। ऐसे बहुत मामले हैं, जब पुलिस ने अपना कर्तव्य निभाया और अपराधी को दंड मिला। महालक्ष्मी हत्याकांड जैसे मामलों को बहुत गंभीरता से लेना होगा। ऐसे अपराधों की रोकथाम करना सिर्फ पुलिस का काम नहीं है। 

पारिवारिक और सामाजिक स्तर पर संवाद होना चाहिए। आज जिस तरह से परिवार टूट रहे हैं, रिश्तों में दरारें आ रही हैं, अकेलापन बढ़ता जा रहा है, मानसिक समस्याएं घर कर रही हैं ... उसके मद्देनज़र ऐसा मंच होना चाहिए, जहां लोग अपनी समस्याएं साझा करें तो उन्हें डांट-फटकार नहीं, बल्कि अपनत्व के साथ सही मार्गदर्शन मिले। अगर साधु-संत अपने प्रवचनों में ऐसे मुद्दे उठाएं तो समाज में सकारात्मक बदलाव जरूर आएगा।

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