गैर-जरूरी बयान

हमारे देश में अल्पसंख्यकों के पास बराबर अधिकार हैं

गैर-जरूरी बयान

भारत में न तो कानूनी स्तर पर कहीं कोई भेदभाव है और न सामाजिक स्तर पर

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार उच्चायुक्त वोल्कर तुर्क द्वारा भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संबंध में दिया गया बयान ग़ैर-ज़रूरी है। संभवत: वोल्कर को भारत में अल्पसंख्यकों के अधिकारों और कानूनी स्थिति की जानकारी नहीं है। इसीलिए वे यह कह रहे हैं कि 'भारत में सभी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को बनाए रखने के प्रयासों को दोगुना करने की स्पष्ट आवश्यकता है।' 

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हमारे देश में अल्पसंख्यकों के पास बराबर अधिकार हैं। उन्हें प्रगति करने के बराबर अवसर मिलते हैं। उन्होंने अपनी प्रतिभा और परिश्रम से देश को गौरवान्वित किया है। राजनीति, प्रशासन, उद्योग, सेना, फिल्म, खेलकूद ... हर क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदायों के लोग शिखर पर पहुंचे हैं, खूब चमके हैं और उन्हें देशवासियों से बहुत सम्मान मिला है। इनमें सबसे बड़ी मिसाल पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम हैं, जिनके भाषण, कथन, किताबें आज भी युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हैं। 

भारत में न तो कानूनी स्तर पर कहीं कोई भेदभाव है और न सामाजिक स्तर पर। हां, कभी-कभार कोई अप्रिय घटना जरूर हो जाती है, जिसके पीछे शरारती तत्त्व होते हैं, लेकिन ये मुट्ठीभर भी नहीं हैं। जब कभी ऐसी कोई घटना सामने आती है, तो सर्वसमाज अपने उन भाइयों-बहनों के हक के लिए खड़ा होता है। किसी एक अप्रिय घटना के आधार पर सर्वसमाज के बारे में कोई धारणा बनाना उचित नहीं है। 

सामाजिक समस्याएं कहां नहीं होतीं? अमेरिका, जापान, ब्रिटेन, नॉर्वे, स्विट्जरलैंड, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया ... इन देशों को बहुत साधन-संपन्न और शिक्षित माना जाता है, लेकिन यहां भी ऐसी समस्याएं देखने को मिल जाती हैं। 

असल मुद्दा यह होना चाहिए कि ऐसी किसी समस्या पर उस देश के सर्वसमाज और कानून की स्थिति क्या है? सर्वसमाज पीड़ित के पक्ष में खड़ा होता है या पीड़ा देनेवाले के पक्ष में खड़ा होता है? कानून अल्पसंख्यकों को बराबर अधिकार देता है या कटौती करता है? स्पष्ट है कि भारत में सर्वसमाज उस पीड़ित के पक्ष में खड़ा होता है और कानूनी अधिकारों को लेकर कहीं कोई भेदभाव की स्थिति नहीं है।

फिर ऐसे बयान क्यों दिए जाते हैं? पश्चिमी देशों के धन से पोषित ऐसे कई कथित थिंक टैंक चल रहे हैं, जो गाहे-बगाहे ऐसी रिपोर्टें प्रकाशित करते रहते हैं, जिनमें यह बताने की कोशिश की जाती है कि भारत में 'भेदभाव' जोरों पर है। अपने एसी युक्त कक्ष में बैठकर मनगढ़ंत बातें छापने वाले ये थिंक टैंक भारत को पश्चिमी चश्मे से ही देखते हैं। उनके चश्मे पर उस समय धूल जम जाती है, जब ये पाकिस्तान और चीन की ओर देखते हैं। ये दोनों देश अल्पसंख्यकों से भेदभाव के शर्मनाक उदाहरण बन चुके हैं।

पाक में कोई हिंदू, सिक्ख, ईसाई, बौद्ध, पारसी ... अल्पसंख्यक समुदाय से आने वाला व्यक्ति प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, सेना प्रमुख और आईएसआई प्रमुख नहीं बन सकता। वहीं, चीन ने शिंजियांग प्रांत में उइगर समुदाय पर अत्याचार की हदें पार कर दी हैं। उसने लाखों उइगरों को कैंपों में बंधक बना रखा है। ऊंची दीवारों और कांटेदार तारों से घिरीं उन इमारतों के आसपास आम नागरिकों का जाना मना है। ऐसे कई लोग हैं, जिन्हें मामूली आरोपों के बावजूद कठोर सजाएं दी गईं। कुछ तो ऐसे हैं, जिन्हें लापता घोषित कर दिया गया है। उनके परिजन यह तक नहीं जानते कि वह व्यक्ति जीवित है या मृत! 

चीन ने शिंजियांग में ऐसी कई पाबंदियां लगा रखी हैं, जिनकी वहां के मीडिया में कभी चर्चा नहीं होती। उइगरों को अपने मजहब के मुताबिक नाम रखने, धार्मिक पुस्तक पढ़ने और परंपरागत परिधान पहनने समेत कई प्रतिबंधों का सामना करना पड़ रहा है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं चीन के इस कृत्य की निंदा करने से क्यों हिचकती हैं? क्या उन्हें इस बात का भय है कि ऐसा कर दिया तो आर्थिक रूप से समृद्ध चीन के साथ जुड़े उनके हितों पर आंच आएगी? इन थिंक टैंकों की रिपोर्टों पर अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं आंखें मूंदकर विश्वास करती हैं। 

कई बार तो पश्चिमी अख़बारों में ऐसी रिपोर्टें प्रकाशित कर दी जाती हैं, जिनका वास्तविकता से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं होता है। वे आज भी इस ग़लतफ़हमी के शिकार हैं कि भारत में पर्याप्त शौचालय नहीं हैं। जबकि पिछले एक दशक की बात करें तो घर-घर में शौचालय बन चुके हैं। कई घरों में तो दो या इससे ज्यादा शौचालय हैं। 

जब भारत चंद्रयान-3 की कामयाबी का जश्न मनाता है तो ये उसके औचित्य पर सवाल उठा देते हैं। ऐसे कई थिंक टैंक दुनियाभर को अर्थव्यवस्था पर उपदेश देते रहे, लेकिन उनकी नाक के नीचे अमेरिका व यूरोप के बैंक डूबते रहे! भारत अपने यहां समस्याओं के होने से इन्कार नहीं करता, लेकिन इतना तय है कि समय के साथ उनका समाधान हो जाएगा। भारतवासी इसमें सक्षम हैं।

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