लोकतंत्र के रक्षक बनें

यह ऐसा अध्याय है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता

लोकतंत्र के रक्षक बनें

'आपातकाल' की घोषणा होते ही पूरा देश एक जेल में तब्दील हो गया था

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'मन की बात' कार्यक्रम में 25 जून, 1975 को भारत पर थोपे गए 'आपातकाल' का जिक्र कर देशवासियों को लोकतंत्र के रक्षक बनने का संदेश दिया है। वह घटना भारत के इतिहास में एक ऐसा अध्याय है, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। आज के युवाओं ने वह दौर नहीं देखा है, जब रातोंरात लोगों के अधिकार छीन लिए गए थे। भारत की आज़ादी के लिए अनगिनत लोगों ने बलिदान दिए थे। उसी तरह, 'आपातकाल' की घोषणा होने के बाद लोकतंत्र को वापस लाने के लिए भी लोगों ने साहस, संघर्ष, त्याग और बलिदान का रास्ता चुना था। आज कई नेता यह कहते हुए उस घटना पर बातचीत से परहेज करते हैं कि 'वह तो पुरानी बात हो गई, अब उस पर कुछ भी कहने की जरूरत नहीं है।' 'आपातकाल' पर बातचीत करना इसलिए जरूरी है, ताकि हम उससे सबक ले सकें और भविष्य में कोई नेता खुद को देश के लोकतंत्र से बड़ा मानने का भ्रम न पाल बैठे। लोकतंत्र में निरंकुशता के लिए कोई जगह नहीं होती है। अगर कोई नेता अच्छा काम करता है तो उसकी सराहना जरूर होनी चाहिए। हमारे देश में ऐसे कई नेता हुए हैं। उन्हें जनसेवा की भावना ने यशस्वी बनाया था। उनकी देशभक्ति और सत्यनिष्ठा पर विरोधी भी संदेह नहीं करते थे। उनका पूरा जीवन देश को समर्पित था। वहीं, कुछ नेताओं ने लोकप्रियता और सत्ता को मनमानी करने का लाइसेंस समझ लिया था। उसकी झलक हमें 'आपातकाल' में देखने को मिली थी। भारत में फिर वह दिन न आए, इसके लिए नई पीढ़ी के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि उस दौरान क्या-क्या हुआ था!    

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'आपातकाल' की घोषणा होते ही पूरा देश एक जेल में तब्दील हो गया था। विपक्ष के बड़े नेताओं से लेकर हजारों आम नागरिकों को बिना किसी अपराध के जेलों में बंद कर दिया गया था। प्रेस पर सख्त सेंसरशिप लागू की गई और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खत्म कर दी गई थी। जनता में डर पैदा करने के लिए जबरन नसबंदी का 'अभियान' चलाया गया था। जब गांवों में सरकारी गाड़ी आती तो मासूम लोग छिपने के लिए इधर-उधर भागते थे। वह दौर हमें याद दिलाता है कि सत्ता का दुरुपयोग बहुत खतरनाक हो सकता है। हमें अपने लोकतंत्र को हर हाल में मजबूत रखना है। कोई नेता कितना ही लोकप्रिय क्यों न हो, कोई पार्टी कितनी ही बड़ी क्यों न हो, कोई सरकार कितनी ही सीटों के साथ ताकतवर क्यों न हो, उन्हें लगातार इस बात का बोध कराते रहना चाहिए कि आप का काम जनता की सेवा करना है, मनमानी करना नहीं है। वे अपने कर्तव्यों के मार्ग से भटक जाएं तो उन्हें 'सही मार्ग' दिखाना भी जनता की जिम्मेदारी है। अगर कोई सत्ता का दुरुपयोग करते हुए गलत फैसला लेता है तो जनता को उसका विरोध करने का अधिकार है। प्राय: सत्ता और लोकप्रियता के कारण कुछ नेताओं के मन में अहंकार आ ही जाता है। उस स्थिति में उन्हें यह भ्रम होने लगता है कि 'वे कोई भी फैसला ले सकते हैं, सबकुछ कर सकते हैं और जनता सदैव उनकी जय-जयकार करती रहेगी।' यह सोच मन में दबे कई विकारों की उपज है। अंग्रेज शासकों को भी बहुत अहंकार हो गया था। उनके बारे में कहा जाता था कि 'ये इतने शक्तिशाली हैं कि इनके राज में सूरज नहीं डूबता।' भारत की जनता ने उनका अहंकार मिट्टी में मिला दिया। सत्ता के नशे में अत्याचार ज्यादा दिनों तक नहीं चलता। जो व्यक्ति सत्ता का प्रयोग जनसेवा के लिए करता है, वह युगों-युगों तक जनता के हृदय में रहता है।

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