आंदोलनजीवी: क्रांतिकारी या भ्रांतिकारी?
आंदोलनजीवी: क्रांतिकारी या भ्रांतिकारी?
आज हम जिस आज़ाद भारत में आज़ादी से सांस ले रहे हैं, उसके पीछे बलिदानों और आंदोलनों की लंबी कहानी है। यह कहा जाए तो ज्यादा सही होगा कि आज हम जहां खड़े हैं, वहां से हमारे उन पूर्वजों के पदचिह्नों की एक अंतहीन शृंखला है जो आंदोलन के लिए घरों से निकले थे।
महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, शहीद भगत सिंह, सरदार पटेल… इन्होंने अपने समय में सामर्थ्य के अनुसार आंदोलनों का नेतृत्व किया पर इनके आंदोलनों का उद्देश्य कोरा विरोध नहीं था। ये समाधान प्रस्तुत करने वाले लोग थे।आज के सन्दर्भ में आंदोलन का अर्थ सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना रह गया है। ये कथित आंदोलनकारी न तो हकीकत जानना चाहते हैं और न उसमें उनकी कोई रुचि है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राष्ट्रपति के अभिभाषण के धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए देश को ‘आंदोलनजीवी’ लोगों से बचने की जो नसीहत दी है, वह गहरा अर्थ रखती है।
किसान आंदोलन के नाम पर जो वातावरण बनाया गया, उसकी जिस प्रकार हिंसक अभिव्यक्ति हुई, सोशल मीडिया पर घृणा का प्रसार किया गया, उसके बाद यह समझने में किसी को हिचक नहीं होनी चाहिए कि ये आंदोलनकारी नहीं, बल्कि विघटनकारी हैं। अगर ये स्वयं को आंदोलनकारी शब्द से संबोधित करते हैं तो उसका अर्थ उन गतिविधियों में लिप्त मनुष्य से लिया जाना चाहिए जिसे न तो समस्या का ज्ञान है, न वह समाधान जानता है और न समाधान चाहता है।
उसे तो हर कीमत पर विरोध ही करना है। अगर आप उसके एक हाथ पर सूरज और दूसरे हाथ पर चांद लाकर रख दें तो भी वह संतुष्ट नहीं होगा, उसके अंधविरोध का कोई-न-कोई बहाना ढूंढ़ ही लेगा।
आज हम विरोध की जो राजनीति देख रहे हैं, वास्तव में वह मुद्दों का विरोध नहीं, बल्कि मोदी का विरोध है। इसे समझने के लिए ज्यादा पीछे जाने की जरूरत नहीं है। जब 2012 में गुजरात विधानसभा चुनाव हो रहे थे तो देशभर की निगाहें नतीजों की ओर थीं। हर कोई यह जानने के लिए उत्सुक था कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा सत्ता में वापसी करेगी या कांग्रेस की वर्षों पुरानी उम्मीद पूरी होगी।
मोदी जीते तो एक राष्ट्रव्यापी बहस शुरू हो गई कि उन्हें केंद्र में क्यों न लाया जाए! इसके बाद भाजपा ने उन्हें चुनाव प्रचार समिति की कमान सौंपी तो मोदी के विरोधी टीवी चैनलों से लेकर गली, मोहल्लों तक यह प्रचार करने में जुट गए कि इससे देश में लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा, तानाशाही आ जाएगी।
अब राष्ट्रीय मुद्दे गायब थे, सिर्फ मोदी को रोकना ही मुद्दा रह गया था। मोदी ने 2014 में लोकसभा चुनाव जीता और प्रधानमंत्री बने। साल 2019 में भाजपा ने सत्ता में वापसी की। इस अवधि में पंचायत से लेकर संसद तक के चुनाव हुए; न लोकतंत्र समाप्त हुआ और न तानाशाही आई।
अगर कांग्रेस समेत विपक्ष रचनात्मक भूमिका निभाता तो आज कहीं मजबूत स्थिति में होता। मोदी के दूसरे कार्यकाल में लिए गए कुछ बड़े फैसले, जैसे अनुच्छेद 370, सीएए – को लेकर विपक्ष न खुलकर विरोध कर पा रहा है और न खुलकर समर्थन। हां, जो नए-नए ‘क्रांतिकारी’ सामने आ रहे हैं, जिनका उद्देश्य विरोध के लिए विरोध करना है, वह उनकी पीठ थपथपाने तुरंत पहुंच जाता है।
ये ‘क्रांतिकारी’ विरोध करने के अलावा कुछ नहीं जानते। इस कोशिश में कई बार मर्यादा भूल जाते हैं। पुलवामा हमले के बाद जब तक पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई तो इनकी शिकायत थी कि कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है! जब हो गई तो शिकायत थी कि क्यों हुई! कोरोना महामारी में जब तक लॉकडाउन नहीं लगाया गया तो शिकायत थी कि मोदी को तो सिर्फ अर्थव्यवस्था की चिंता है, लोगों की नहीं है! जब लॉकडाउन लगा दिया तो शिकायत थी कि क्यों लगाया! जब मंदी से कंपनियां डगमगाने लगीं तो शिकायत थी कि इन्हें क्यों नहीं बचाया जा रहा है! जब राहत पैकेज की घोषणा हुई तो शिकायत थी कि मोदी पूंजीपतियों का भला क्यों कर रहे हैं!
ऐसे ‘आंदोलनजीवियों’ के कारनामों की सूची बहुत लंबी है। इसमें जगह और नाम बदलते रहते हैं, बस तरीका एक ही होता है- मोदी का विरोध, हर फैसले का विरोध। हमें विरोध प्रदर्शन, आंदोलन का पूरा अधिकार है, लेकिन यह समाधानपरक हो। हर बात पर किसी एक व्यक्ति के विरोध के लिए कूद पड़ने का नाम क्रांति नहीं, भ्रांति है।