कब तक रहेगा दहेज का दानव?
कब तक रहेगा दहेज का दानव?
राजस्थान मूल की युवती आयशा द्वारा गुजरात में साबरमती नदी में छलांग लगाकर आत्महत्या किए जाने का मामला हमारे समाज के उस रोग को प्रकट करता है, जिसका सदियों बाद भी ठोस उपचार नहीं किया जा सका है। मामले को लेकर पुलिस छानबीन में जुटी है लेकिन परिवार ने जो आरोप लगाए हैं, उनमें दहेज प्रताड़ना का प्रमुखता से जिक्र है। आखिर कब तक दहेज का दानव ज़िंदा रहेगा और बेटियां यूं मौत को गले लगाती रहेंगी?
आज दहेज का रोग किसी एक समुदाय की नहीं, सर्वसमाज की समस्या बन गई है। करीब चार दशक पहले यह तर्क दिया जाता था कि दहेज की बुराई इसलिए मौजूद है, क्योंकि लोगों में शिक्षा का अभाव है। इसके बाद शिक्षा पर खूब जोर दिया गया। लोगों ने बड़ी-बड़ी डिग्रियां ले लीं, पर दहेज प्रथा जस की तस रही। बल्कि कई बार यह देखा गया कि लोग अपने बेटे की पढ़ाई पर हुआ खर्च भी लड़की के पिता से वसूलते हैं। ऊपर से महंगी शादियां, सजावट, बड़ी बारातें, नए-नए रिवाज — इन सबने आम आदमी को पीस दिया है।देश में पहले से ही इतनी महंगाई है कि सामान्य परिवार किसी तरह गुजारा कर रहा है। रही-सही कसर कोरोना ने पूरी कर दी। महीना खत्म हुआ नहीं कि एक के बाद एक बिल मुंह बाए खड़े रहते हैं। क्या इस सूरत में यह उचित है कि हम दहेज प्रथा समेत रिवाज के नाम पर तमाम फिजूलखर्चियां ढोते रहें?
हमारे ऋषियों ने विवाह को सरल बनाया है। अगर एक-एक मंत्र का अर्थ पढ़ें तो मालूम होता है कि उनमें सुखी दांपत्य जीवन के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म बातों को किस तरह प्रस्तुत किया गया है। कालांतर में पश्चिमी चकाचौंध और देखादेखी की वजह से लोगों ने इसमें भी इतने रिवाज जोड़ दिए कि अब वे उनके ही गले पड़ गए हैं। मद्यपान, सड़कों पर नाचना, हंगामा करना, लालच के वशीभूत होकर कन्या पक्ष को कर्ज में डुबो देना — इन सब कृत्यों का हमारे किसी ऋषि ने आदेश नहीं दिया है। जब शास्त्र विरुद्ध कर्म करेंगे तो सुख कहां से होगा?
शास्त्रों द्वारा तय की गई मर्यादा के उल्लंघन का परिणाम आज हम देख रहे हैं। कहीं बेटियां दुखी होकर आत्महत्या कर रही हैं, तो कहीं दोनों परिवार कचहरी के चक्कर लगा रहे हैं, परिवार तनाव में हैं। आखिर इन सबकी वजह क्या है? क्या यह मालूम करने के लिए किसी के पास समय है? लोग सात जन्म तक साथ निभाने का वादा करते हैं लेकिन हालात ऐसे बना दिए हैं कि सात साल भी निभा पाना किसी अग्निपरीक्षा जैसा हो गया है।
पिछले कुछ वर्षों में दहेज प्रथा के मामले में थोड़ा फर्क जरूर आया है। अब वर पक्ष खुलकर दहेज मांगने से हिचकिचाता है। इसका श्रेय एक हद तक समाचारपत्रों की रिपोर्टिंग और उन फिल्मों को दिया जा सकता है जिनमें दहेजलोभियों की भरपूर निंदा की गई है। पर इसका दूसरा पक्ष जानना बहुत जरूरी है। ऐसे लोगों ने एक और रास्ता निकाल लिया है जिससे वे हंसते-हंसते दहेज ले ही लेते हैं। जब लड़की का पिता कुछ देता है तो वे मना नहीं करते, चुपचाप ले लेते हैं। जब उनसे पूछा जाता है तो कहते हैं- हमने मांगा थोड़े ही था, वह तो अपनी बेटी को दे रहा है! समाज में ऐसे लोगों की भरमार है।
ये मांग कर दहेज लेने वालों से कम खतरनाक नहीं होते। इन पर ‘मन-मन भावै, मूंड हिलावै’ वाली कहावत हूबहू लागू होती है। इनमें इतना साहस नहीं होता कि लड़की के पिता को आगे बढ़कर साफ कह सकें कि हमारे लिए आपकी बेटी ही सबसे बड़ा धन है, अब आप किसी प्रकार का कष्ट न करें। यह चुप्पी वास्तव में दहेज प्रथा को मौन स्वीकृति है। ऐसे मूकदर्शक किसी समाज या राष्ट्र के लिए लाभदायक नहीं हो सकते। इन्हें देखकर तो उस द्यूत क्रीड़ा का दृश्य साकार हो जाता है जहां दु:शासन चीरहरण करता रहा और धृतराष्ट्र समेत दिग्गज मौन रहे।
हमें विचार करना चाहिए कि आज जब महंगाई बढ़ रही है, नौकरियों के लिए मारामारी है, दुनिया कोरोना महामारी में किसी तरह अस्तित्व बचाने के लिए जूझ रही है, तो दहेज प्रथा और फिजूलखर्चियों के नाम पर अनाप-शनाप खर्च करने, कर्ज में डूब जाने में कौनसी समझदारी है? क्या इससे दुनिया के सामने हमारी प्रतिष्ठा बढ़ेगी।
याद रखें, जो कौमें खुद अपने पांवों में रुकावटों की बेड़ियां डालकर उन्हें महिमा मंडित करती हैं, वे आगे नहीं बढ़ सकतीं। उन्हें कदम-कदम पर दुख भोगने पड़ते हैं। आज सर्वत्र यही हो रहा है। अखबार, सोशल मीडिया, टीवी — हर कहीं इन्हीं बुराइयों का शोर सुनाई दे रहा है। आखिर कब हम अपने पांवों से ये बेड़ियां निकालकर फेंकेंगे? याद रखें, धृतराष्ट्र की सभा में जो मौन रहे, कालांतर में उनमें से प्रत्येक ने किसी न किसी रूप में उसका कठोर परिणाम अवश्य भुगता।