कर्नल सोनम वांगचुक: पाक के दांत खट्टे करने वाला ‘लद्दाख का शेर’

कर्नल सोनम वांगचुक: पाक के दांत खट्टे करने वाला ‘लद्दाख का शेर’

नई दिल्ली/दक्षिण भारत। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 के ज्यादातर प्रावधान हटाने और दो केंद्र शासित प्रदेशों के निर्माण के फैसले के बाद राष्ट्र को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस क्षेत्र के जिन लोगों की तारीफ की, उनमें कर्नल सोनम वांगचुक भी हैं।

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‘लद्दाख का शेर’ के नाम से मशहूर सोनम वांगचुक का जन्म 1964 में लेह जिले के संकार में हुआ था। पांच साल की उम्र में वांगचुक अपने माता-पिता के साथ हिमाचल के सोलन आ गए। यहां उन्होंने शुरुआती पढ़ाई की। इसके बाद वे धर्मशाला आ गए जहां उन्हें प्रसिद्ध धर्मगुरु दलाई लामा से मुलाकात का अवसर मिला। उस समय वांगचुक के पिता यहां सुरक्षा अधिकारी के रूप में तैनात थे।

सोनम वांगचुक ने कॉलेज की पढ़ाई दिल्ली से की। उनके पिता उन्हें प्रशासनिक सेवा का अधिकारी बनाना चाहते थे लेकिन वांगचुक का सपना था कि वे सेना में भर्ती होकर देशसेवा करें। जल्द ही उनका यह सपना पूरा हो गया। साल 1987 में सेना में भर्ती हुए वांगचुक को असम रेजिमेंट की चौथी बटालियन में बतौर सेकंड लेफ्टिनेंट नियुक्ति दी गई। वे नॉर्थ-ईस्ट में तैनात रहे और शांति अभियान में श्रीलंका भी भेजे गए। इसके बाद उन्हें लद्दाख स्काउट्स में तैनात किया गया।

साल 1999 में जब कारगिल युद्ध छिड़ा, तब मेजर सोनम वांगचुक और उनके साथियों को जिम्मेदारी सौंपी गई कि चोरबैट ला टॉप को पाकिस्तानी सैनिकों से खाली कराया जाए। मेजर वांगचुक ने इस अभियान का कुशलतापूर्वक नेतृत्व किया। वे लगातार अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जा रहे थे। करीब 17,000 फीट की ऊंचाई पर स्थिति इस इलाके में मौसमी परिस्थितियां प्रतिकूल थीं। ठंडी हवाएं, बर्फबारी, कम ऑक्सीजन और माइनस में तापमान के बीच ये जांबाज योद्धा पड़ोसी मुल्क के घुसपैठियों को लगातार मुंहतोड़ जवाब देते जा रहे थे।

गोलियों की बौछार के बीच कई मौके ऐसे भी आए जब मेजर वांगचुक पाकिस्तानी जवानों के निशाने पर थे, लेकिन उन्होंने जान की बाजी लगाकर आगे बढ़ना जारी रखा। उन्होंने दुश्मन पर घातक प्रहार किए और उसके कई सैनिकों को मार गिराया। इस दौरान दुश्मन के हथियार और गोला-बारूद भी नष्ट कर दिया गया। दोनों ओर से भयंकर गोलीबारी के बीच मेजर वांगचुक और उनके साथी पूरी ताकत के साथ दुश्मन पर हमला कर रहे थे। उन्होंने पाकिस्तान के कई हमलों को नाकाम किया।

आखिरकार मेजर वांगचुक और उनके 40 जवानों के सामने पाकिस्तान के 135 सैनिक पस्त हो गए। उनके पांव उखड़ने लगे और वे अपने साथियों के शव भी वहीं छोड़कर भागने लगे। यह कारगिल युद्ध में भारतीय सेना की पहली विजय थी।

इस अद्भुत पराक्रम के लिए वांगचुक को महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। कर्नल वांगचुक 2018 में सेना से सेवानिवृत्त हो चुके हैं। वे युवाओं को सेना में भर्ती होकर देशसेवा के लिए प्रेरित करते हैं। जब कभी उनके वीरतापूर्ण कार्यों की प्रशंसा की जाती है तो वे विनम्रतापूर्वक कहते हैं, ‘मैं देश का सैनिक हूं और मैंने जो कुछ भी किया, वह मेरा कर्तव्य था।’

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