धर्म है सबकी सुख-शांति और कल्याण का आधार: आचार्य विमलसागरसूरी
धर्म का अनुयायी होना और धार्मिक होना, दोनों में गहरा अंतर है

धार्मिक होने का अर्थ है धर्म को धारण करना
होसपेट/दक्षिण भारत। सोमवार को शहर के आदिनाथ जैन धर्मशाला में प्रवचन कार्यक्रम को संबोधित करते हुए आचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि धर्म अद्भुत, अनुपम और अमूल्य तत्व है। यह प्राणीमात्र के कल्याण और सबकी सुख-शांति का नियामक है।
धर्म का अनुयायी होना और धार्मिक होना, दोनों में गहरा अंतर है। अनुयायी होने का अर्थ है किसी धर्म-संप्रदाय की मान्यता को स्वीकार करना और धार्मिक होने का अर्थ है धर्म को धारण करना, धर्ममय होना यानी धर्मतत्व से स्वयं का रूपांतरण करना। यह अवस्था धर्मतत्व को ठीक से समझे बिना संभव नहीं है।धर्मस्थल, धर्मगुरु और धर्मग्रंथ हमारे प्रेरणाकेन्द्र हैं। वे धर्मतत्व को समझने के माध्यम हैं, लेकिन धर्मतत्व स्वयं के भीतर संक्रमित या फलीभूत हों, यह अत्यंत आवश्यक है। इसलिए धर्म का दिखावे से कोई संबंध नहीं है।
धर्म प्रदर्शन में नहीं, स्वदर्शन में जीवंत रहता है। दिखावे की चेष्टाएं अधार्मिक होने का प्रतीक है। धर्म की आराधना-उपासना तो सभी लोग अपने-अपने ढंग से करते आ रहे हैं, लेकिन धर्मतत्व को अपने भीतर उतारना अर्थात उससे अपने अंतर का रूपांतरण करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। धर्म की यही वास्तविक उपलब्धि है।
जैनाचार्य ने आगे कहा कि भीतर के रूपांतरण का अर्थ है कि मनुष्य के सोच-विचार, आहार, व्यवहार, वाणी, व्यापार, चाल-चलन, सभी में सम्यक परिवर्तन का आना चाहिए। एक प्रकार से यह ज्ञानदशा का प्रकटीकरण है। धर्म की आराधना के बाद दूसरे क्रम में धर्म की प्रभावना आती है।
उसका तात्पर्य यह है कि धर्म का इस प्रकार प्रसार-प्रचार करना, जिससे अबोध लोगों को धर्म का बोध मिले, जनसामान्य धर्मतत्व के प्रति आकर्षित बनें, उनके भीतर धर्मतत्व से रूपांतरण हों यानी उनका भी मंगल-कल्याण हों। इसलिए हम सभी को सिर्फ धर्म की आराधना उपासना तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए, बल्कि जन-जन को धर्मतत्व से पल्लवित करना चाहिए।
धर्म की प्रभावना सर्वमंगल-सर्वहित की कामना है। इसके बाद तीसरा क्रम धर्मरक्षा का आता है अर्थात् अधर्म और अधार्मिक प्रवृत्तियों से धर्म की रक्षा करना। धर्म की रक्षा करने से ही अपनी रक्षा हो सकती है। दुर्गति की ओर बढ़ रहीं आत्माओं को धर्म धारण करता है और उन्हें सद्गति की ओर मोड़ता है। धर्म के शुद्ध स्वरूप को समझना ही ज्ञानी होने का सार है।
इस अवसर पर गणि पद्मविमलसागरजी भी उपस्थित थे। पंन्यास परमयशविजयजी ने कहा कि धन हमें अच्छा लगता है, इसलिए धनवान भी अच्छे लगते हैं। उसी तरह भगवान अच्छे लगें तो भगवान के बतलाए उपदेश भी अच्छे लगने चाहिएं। यदि भगवान द्वारा बतलाए गए कल्याणकारी सिद्धांतों से आपको प्रेम नहीं है तो इससे यह सिद्ध होता है कि भगवान के प्रति भी आपको प्रेम नहीं है।
इस मौके पर सोमवार को विहार कर होसपेट आए मुनि वैभवरत्नविजयजी ने कहा कि मोह संताप लाता है। चैतन्य की शुद्धता के लिए मोह को कम करना जरूरी है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। यदि हम सही मार्ग का अनुसरण करें तो प्रतिक्रिया कभी गलत नहीं होगी।
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