कर्म क्षय के लिए भगवान का नाम स्मरण ही सबसे सरल उपाय: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी
'जिसने प्रभु का आश्रय पा लिया, वह तर गया'

'यदि सुख की घड़ी में प्रभु का नाम स्मरण करते रहे, तो जीवन में कभी दुख आएगा ही नहीं'
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी ने शनिवार को अपने प्रवचन में कहा कि जिस प्रकार जल की बूंद कमल पत्ते का आश्रय पाकर मोती बनने का आश्रय ले लेती है, वही बूंद गर्म तवे पर पड़ती है, तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है।
उसी प्रकार जिसने प्रभु का आश्रय पा लिया, वह तर गया। जिसने भावपूर्वक प्रभु का आश्रय न लेकर संसारीजनों का आश्रय लिया, वह भव सागर में डूब गया। भावपूर्वक प्रभु का नाम लेने से पाप तो कटते ही हैं, साथ ही प्रभु भक्ति ही जीवन को संभालने का सही तरीका है।उन्होंने कहा कि जैन धर्म में भक्ति का प्रयोजन अपने भीतर की भगवत्ता को प्रकट करने से है। अंतरंग की बुराइयों व विकारो के नष्ट होते ही अपने आप अंदर की भगवत्ता प्रकट हो जाती है। जीवन में कुछ अच्छा कर गुजरने की क्षमता भगवान की भाव पूर्वक भक्ति करने से ही मिलती है।
उन्होंने कहा कि विडंबना है कि लोग दुख की घड़ी में भगवान का नाम लेते हैं। यदि सुख की घड़ी में प्रभु का नाम स्मरण करते रहे, तो जीवन में कभी दुख आएगा ही नहीं। कर्म काटने के लिए सबसे सीधा व सरल उपाय भगवान का नाम स्मरण ही है। भगवान के नाम, उच्चारण मात्र से भाव का उद्धार हो जाएगा।
आचार्यश्री ने कहा कि मानव जीवन में धर्म का बहुत महत्व है। धर्म ही मानव को मुक्ति देता है। अन्य सभी भौतिक सम्पदाएं संसार में ही रह जाती हैं। मृत्यु के बाद धर्म ही जीव के साथ जाता है। शरीर के साथ कोई नहीं जाता। केवल धर्म ही जीव के साथ जाता है। अपने किए पुण्य पाप के अनुसार जीव को अन्य योनी की प्राप्ति होती है, इसलिए मानव को धर्म का आचरण करना चाहिए। जीवनकाल में धर्म ही मनुष्य को त्राण दे सकता है।
धर्म की व्याख्या करने के लिए इसके लौकिक और पारलौकिक स्वरूप को समझना आवश्यक है। लौकिक धर्म वह धर्म है, जिसे हम इस लोक में करते हैं और उसका फल भोगते हैं। पारलौकिक धर्म इस लोक से परे है और वहीं मानव जीवन की सच्ची कमाई है। इसी धर्म को प्राप्त करने के लिए मानव को प्रयास करना चाहिए।
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