बदनाम अगर होंगे तो क्या ...
हर बदलाव को 'विकास' नहीं कहा जा सकता

अश्लीलता के बगैर भी हास्य उत्पन्न किया जा सकता है
इन दिनों सोशल मीडिया पर कई लोग 'बदनाम अगर होंगे तो क्या नाम न होगा' की तर्ज पर अभद्र, अश्लील और आपत्तिजनक सामग्री पेश कर रहे हैं। कोरोना काल के बाद तो ऐसे कथित इन्फ्लुएंसरों की बाढ़-सी आ गई है, जो कला, हास्य और सामाजिक वास्तविकता का चित्रण करने के बहाने बहुत ही अमर्यादित बातें कर रहे हैं। ऐसे ही एक 'इन्फ्लुएंसर' ने माता-पिता के पवित्र संबंधों पर जो टिप्पणी की, वह अत्यंत निंदनीय है। कोई व्यक्ति ऐसी घिनौनी बात सोच ही कैसे सकता है? ये कथित सेलिब्रिटी और इन्फ्लुएंसर कैसा समाज बनाना चाहते हैं? इनकी देखादेखी कई किशोर और युवा अशालीन भाषा का प्रयोग करते हुए वीडियो बनाने में बड़प्पन समझने लगे हैं। आज देश में ऐसे लोगों की तादाद करोड़ों में है, जो मोबाइल फोन पर वीडियो देखते हैं। जब इन वीडियो में बार-बार ऐसी सामग्री आएगी, जो अभद्र व अशालीन हो तो लोगों के मन पर इसका कैसा असर होगा? ऐसे शब्द आम बोलचाल में शामिल होने लगे हैं। अभिभावक चिंतित हैं, क्योंकि बच्चे पढ़ाई के लिए मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं और उस पर कब आपत्तिजनक सामग्री आ जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता। ओटीटी ने तो हद ही पार कर दी है। कुछ साल पहले जिसे समाज में बहुत बुरी एवं अश्लील बात समझा जाता था, अब वह ओटीटी के जरिए घर-घर पहुंच गई है और इसे यह तर्क देते हुए स्वीकृति मिलने लगी है कि ज़माना बदल गया है! बेशक ज़माना बदल गया है, समय के साथ कुछ बदलाव जरूरी होते हैं, लेकिन हर बदलाव को 'विकास' नहीं कहा जा सकता। जो बदलाव नैतिक पतन की ओर लेकर जाए, उससे बचना ही चाहिए।
बहुत लोगों ने यह गलत धारणा बना ली है कि जिसके सोशल मीडिया पर लाखों या करोड़ों सब्सक्राइबर हैं, वह हमेशा सही बात कहेगा। इन प्लेटफॉर्म पर अच्छी और लाभदायक बातें कहने वाले लोग भी हैं, लेकिन ज्यादा सब्सक्राइबर होने का यह मतलब नहीं है कि संबंधित व्यक्ति की बातों को आंखें मूंदकर स्वीकार कर लें। सोशल मीडिया पर चर्चा में रहने वाले ऐसे कई इन्फ्लुएंसर जुआ और सट्टा संबंधी ऐप का प्रचार करते नजर आते हैं। बहुत लोग उन ऐप के जाल में फंसकर जीवनभर की बचत गंवा चुके हैं। टीवी, ओटीटी और सोशल मीडिया पर 'कॉमेडी' के कार्यक्रमों का स्तर बहुत ज्यादा गिर चुका है। जिन्होंने अस्सी और नब्बे के दशक में टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम, जिनमें से कई अब ऑनलाइन उपलब्ध हैं, देखे हैं, वे इस बात को ज्यादा बेहतर ढंग से समझ सकते हैं कि अश्लीलता के बगैर भी हास्य उत्पन्न किया जा सकता है, अशोभनीय संवादों के बगैर भी अपनी बात दृढ़ता से कही जा सकती है। जब कोई व्यक्ति ऐसी सामग्री पर आपत्ति जताता है तो उसे यह कहकर खामोश रहने की नसीहत दी जाती है कि ऐसा करना 'सीन' की मांग है। ऐसी मांग पैदा ही क्यों की जाती है? क्या निर्माता, निर्देशक, लेखक आदि को जनता बाध्य कर रही है कि अभद्र सामग्री को डालना अनिवार्य है? वास्तव में ये कोरे बहाने हैं। बुराई में एक खास तरह का आकर्षण होता है। हर युग में लोग उसके खिलाफ एकजुट होते हैं। उस पर विजय भी मिलती है। इसके लिए जनता को लगातार आवाज उठानी पड़ती है। यह खुशी की बात है कि आज जनता बहुत जागरूक है। पहले, कॉमेडी के नाम पर विभिन्न कार्यक्रमों में हिंदू देवी-देवताओं के बारे में अनर्गल बातें कह दी जाती थीं। कुछ साल पहले एक कथित कॉमेडियन ने भगवान श्रीराम और माता सीता के बारे में घोर आपत्तिजनक टिप्पणी कर दी थी। जनता ने उसका विरोध किया था। उससे अन्य लोगों को सबक मिल गया। अब सार्वजनिक मंचों पर कोई कॉमेडियन ऐसा दुस्साहस नहीं करता। जनता की जागरूकता से ही ऐसे लोग हतोत्साहित होंगे।