विद्या के मंदिर

आज इस बात की बहुत जरूरत है कि नई पीढ़ी को पुस्तकालयों से जोड़ा जाए

विद्या के मंदिर

विद्यालय की तरह पुस्तकालय भी विद्या के मंदिर हैं

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 'मन की बात' कार्यक्रम से उन लोगों को भी मंच मिल रहा है, जो समाज की बेहतरी के लिए काम कर रहे हैं, लेकिन उनकी कोशिशों को 'खास' पहचान नहीं मिल पाई थी। हर बार 'मन की बात' में ऐसे 'नायकों' को स्थान देना सराहनीय है। इससे उन लोगों, जिनका जिक्र इस कार्यक्रम में हुआ, का हौसला बढ़ता है, साथ ही अन्य लोगों को भी प्रेरणा मिलती है। 

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प्रधानमंत्री ने जिस तरह उत्तराखंड के नैनीताल जिले में कुछ युवाओं द्वारा 'घोड़ा लाइब्रेरी' के संचालन की कहानी देश-दुनिया के सामने रखी है, उसके बाद इस प्रयास की चर्चा घर-घर में हो रही है। चूंकि नैनीताल पहाड़ी इलाका है, जहां दूर-दराज के गांवों तक किताबें पहुंचाना आसान नहीं है, लेकिन इन युवाओं ने हार नहीं मानी। आज करीब दर्जनभर गांवों के बच्चों को इसका लाभ मिल रहा है। वह भी नि:शुल्क! 

ऐसे प्रयास शिक्षा के प्रसार की दिशा में बहुत बड़े परिवर्तन ला सकते हैं। विद्यालय की तरह पुस्तकालय भी विद्या के मंदिर हैं। इनको बढ़ावा देने की जरूरत है। आज किताबें पढ़ने का चलन कम होता जा रहा है। कई पुस्तकालय संसाधनों के अभाव में या तो बंद हो गए या अपना विस्तार नहीं कर सके, बस किसी तरह अस्तित्व बचाए हुए हैं। 

कई लोगों को लगता है कि इंटरनेट के जरिए जो पढ़ लिया, वह काफी है। यही प्रवृत्ति बच्चों में दिखाई दे रही है। जबकि विभिन्न वैज्ञानिक शोध बताते हैं कि किताबें पढ़कर ली गई जानकारी को मस्तिष्क ज्यादा समय तक याद रखने में सक्षम होता है। दो दशक पहले तक शब्दकोशों का काफी चलन था। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को प्रो. आरसी पाठक, फादर कामिल बुल्के सरीखे विद्वानों के शब्दकोश बतौर इनाम दिए जाते थे। शब्दकोशों को घरों में पवित्र ग्रंथों जैसा दर्जा दिया जाता था।

आज किसी शब्द का अर्थ जानना हो तो मोबाइल फोन पर ढूंढ़ा जाता है। कितनी ही वेबसाइटें सही अर्थ बताने का दावा करती हैं, लेकिन उनमें ग़लतियों की भरमार है। कई बार ऐसा होता है कि एक शब्द का अर्थ देखने गए, लेकिन वेबसाइट पर ऐसे लिंक मिल गए, जिन पर क्लिक करते-करते एक घंटा बिता दिया।

आज इस बात की बहुत जरूरत है कि नई पीढ़ी को पुस्तकालयों से जोड़ा जाए। इसके लिए स्थानीय स्तर पर ऐसे प्रयास हों, जैसे नैनीताल जिले के युवाओं ने किए हैं। अगर आस-पास के लोग थोड़ा-थोड़ा योगदान करें तो पुस्तकालय बहुत अच्छी तरह से चलाया जा सकता है। यह एक ऐसा निवेश है, जिसके हमेशा लाभप्रद होने की गारंटी है। 

अगर नैनीताल के दुर्गम इलाकों में अच्छी किताबें पहुंचाकर पुस्तकालय का संचालन किया जा सकता है, तो उन इलाकों में क्यों नहीं किया जा सकता, जहां आवागमन सुगम है? प्राय: यह तर्क दिया जाता है कि आजकल के बच्चे स्कूली पाठ्यक्रम के अलावा अन्य किताबें पढ़ना पसंद नहीं करते या उनके पास इन सब कार्यों के लिए समय नहीं होता। वास्तव में यह सत्य नहीं है। बच्चे अन्य शिक्षाप्रद किताबों को पढ़ना तब पसंद करेंगे, जब वे उन्हें लाकर दी जाएंगी। रही बात समय निकालने की, तो यह कोई असंभव कार्य नहीं है। अगर अन्य गतिविधियों में से थोड़ा समय बचा लिया जाए, मोबाइल गेम, टीवी आदि का समय कम कर दिया जाए तो किताबें पढ़ने के लिए समय निकल सकता है। 

कई अभिभावक समझते हैं कि 'किस्से-कहानियां पढ़ना समय की बर्बादी है, लिहाजा बच्चों को इनसे दूर रहना चाहिए।' वास्तव में प्रेरक व रोचक कहानियां पढ़ने से बच्चों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। इससे शब्दज्ञान बढ़ता है। साथ ही व्यक्तित्व का निर्माण होता है। दादी-नानी की कहानियां इसीलिए बहुत चाव से सुनी जाती थीं, क्योंकि उनमें स्वस्थ मनोरंजन के साथ कोई सीख भी होती थी। 

अगर परमवीर चक्र, महावीर चक्र और वीरता के अन्य पुरस्कार विजेताओं के बारे में पढ़ें तो पाएंगे कि उनमें से ज्यादातर ने अपने बचपन में परिवार के किसी सदस्य से योद्धाओं की कहानियां सुनी थीं। उन कहानियों से उनमें बड़े सपने देखने की ललक पैदा हुई। उनसे साहस का संचार हुआ और एक दिन वे खुद महान योद्धा बनकर ऐसा काम कर गए, जिन पर देश गर्व करता है। 

आज जो स्कूली बच्चे हैं, अगर उन्हें डॉ. विक्रम साराभाई, डॉ. होमी जहांगीर भाभा, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और इसरो के उन वैज्ञानिकों की कहानियां पढ़ाएंगे, जिन्होंने अपनी प्रतिभा व परिश्रम से देश को गौरवान्वित किया है, तो उनमें से भारत के भावी वैज्ञानिक तैयार होंगे। बस, ज्ञान की एक ज्योति जलाने की जरूरत है। पुस्तकालय इसकी किरणों को दूर-दूर तक पहुंचा देंगे।

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