वाणी का संयम सीखें
'बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा' की तर्ज पर नेता बयान देकर चले जाते हैं
भले ही अदालत ने राहुल को दो साल कारावास की सजा सुनाई और जमानत भी दे दी, लेकिन इससे उनकी छवि को धक्का लगा है
मोदी उपनाम को लेकर कांग्रेस नेता राहुल गांधी की विवादित टिप्पणी मामले में गुजरात के सूरत की एक अदालत का फैसला सभी नेतागण के लिए स्पष्ट संदेश है कि उन्हें अनर्गल बोलने का लाइसेंस नहीं मिला है, इसलिए वाणी पर संयम रखें। प्राय: कुछ नेतागण चुनावी जनसभा में लोगों को देखकर भावावेश में आ जाते हैं। अधिक तालियों की गड़गड़ाहट और अधिकाधिक वाहवाही पाने और सोशल मीडिया व टीवी पर छा जाने के लिए उनमें होड़ लग जाती है कि कौन अधिक विवादित बयान देता है।
'बदनाम होंगे तो क्या नाम नहीं होगा' की तर्ज पर नेता बयान देकर चले जाते हैं। वे इस बात की परवाह नहीं करते कि ऐसे बयानों का क्या असर होगा। चूंकि उनकी नजर तो वोटबैंक पर होती है। उन्हें यह भ्रम होता है कि जितना सियासी पारा चढ़ेगा, उतनी ही 'वोटवर्षा' होगी। प्राय: तुरंत प्रचार पाने के लोभ में कई नेता ऐसे बयान दे देते हैं, लेकिन अब यह फॉर्मूला उन्हें महंगा पड़ सकता है।राहुल गांधी को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने वर्ष 2019 के आम चुनाव से पहले कर्नाटक के कोलार में आयोजित जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए 'लक्ष्मण रेखा' पार कर दी और एक समुदाय पर विवादित टिप्पणी कर बैठे! उन्हें केंद्र सरकार, नरेंद्र मोदी और भाजपा सरकारों की आलोचना करनी है तो खुलकर करें। लोकतंत्र में इसकी भरपूर गुंजाइश है, लेकिन यह उचित नहीं है कि एक समुदाय पर दोषारोपण करने लग जाएं।
भले ही अदालत ने राहुल को दो साल कारावास की सजा सुनाई और जमानत भी दे दी, लेकिन इससे उनकी छवि को धक्का लगा है। पूर्व में राफेल और अब मोदी उपनाम मामले में अदालत से झटका लगने से भाजपा को 'मौका' मिल गया है, जिसका लाभ उठाने से वह पीछे नहीं हटेगी। सवाल यह भी है कि राहुल को ऐसे बयान देने के लिए कोई सलाह देता है या वे स्वेच्छा से बयान दे देते हैं?
कांग्रेस को इस पर मंथन करना चाहिए कि उसके वरिष्ठ नेताओं ने जितनी बार मोदी पर निजी हमले किए हैं, वे लौटकर उनकी ओर ही आए हैं और पार्टी को नुकसान हुआ है। '... का सौदागर', '... आदमी', 'चायवाला', 'चौकीदार ही ... है' - जैसे जुमलों की कांग्रेस ने बड़ी कीमत चुकाई है। क्या अब उसके नेताओं को आत्मावलोकन नहीं करना चाहिए? ऐसे निजी हमलों से कांग्रेस ने कुछ खास हासिल नहीं किया, बल्कि गंवाया ही है। चुनावों में नुकसान उठाने के बाद अब अदालतों में किरकिरी हो रही है।
कोलार की उस जनसभा में राहुल गांधी, मोदी सरकार की नीतियों पर खूब सवाल उठा सकते थे। वे खामियां गिनाकर यह कह सकते थे कि अगर कांग्रेस सत्ता में होती तो वह कौनसे ठोस कदम उठाती, लेकिन वे मर्यादा लांघते गए और एक समुदाय पर दोषारोपण करते गए। निस्संदेह जब राहुल के उस बयान को संबंधित समुदाय के लोगों ने सुना तो वह उन्हें घोर आपत्तिजनक लगा होगा। यह स्वाभाविक है। व्यक्ति विशेष की करतूतों के लिए पूरे समुदाय की भूमिका पर सवालिया निशान कैसे लगाया जा सकता है? कोई भी विवेकशील मनुष्य ऐसे बयानों से सहमत नहीं होगा।
राहुल गांधी ने 'भारत जोड़ो यात्रा' में पसीना बहाकर अपनी मजबूत छवि बनाने की कोशिश की थी। वे उसमें काफी कामयाब होते दिखे भी थे, लेकिन अब अदालती फैसले से भाजपा यह संदेश देने के लिए ताकत झोंकेगी कि राहुल पहले तो बयान दे देते हैं, फिर अदालतों से फटकार पाते हैं, लिहाजा उनके शब्दों को गंभीरता से न लिया जाए। राहुल गांधी गाहे-बगाहे वीर सावरकर पर निशाना साधते रहते हैं। अब भाजपा उक्त फैसले के आधार पर राहुल को घेर सकती है।
राहुल ने अदालत का फैसला आने के बाद महात्मा गांधी का एक अनमोल वचन ट्वीट किया, 'मेरा धर्म सत्य और अहिंसा पर आधारित है। सत्य मेरा भगवान है, अहिंसा उसे पाने का साधन।' राहुल गांधी को स्मरण रखना चाहिए कि महात्मा गांधी ने अहिंसा के साथ वाणी के संयम पर भी जोर दिया था।
अहिंसा के विविध आयाम हैं। मात्र शारीरिक अहिंसा नहीं; मन, कर्म और वचन से अहिंसा का पालन करना चाहिए। उम्मीद है कि हर राजनीतिक दल के नेता वाणी के संयम का पालन करेंगे। कोई मर्यादा का उल्लंघन करे तो उसे अदालत द्वारा इसकी शिक्षा कुछ कठोरता के साथ मिलनी ही चाहिए।