जनता जनार्दन
आज हम स्वतंत्र हैं, हमारे पास अपना संविधान है तो इसके पीछे करोड़ों लोगों का संघर्ष, उनकी मेहनत है

लोकतंत्र में देश चलाने और उसे बेहतरी की ओर लेकर जाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं है
महाराष्ट्र के बीड जिले में स्थित पोखरी गांव के निवासियों ने बच्चों का बेहतर भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपने संसाधनों से स्कूल के उन्नयन और विस्तार का जो कार्य किया है, वह प्रशंसनीय है। इन लोगों ने खुद की जमीन पर खुद के संसाधनों से यह साबित कर दिया कि अगर जनता जनार्दन कुछ ठान ले तो उसे संभव कर दिखाती है।
हमारे स्वतंत्रता सेनानियों, संविधान निर्माताओं ने ऐसे भारत के निर्माण का सपना देखा था, जहां देश के विकास में जनता की प्रत्यक्ष भूमिका हो। इसके लिए जरूरी है कि हमें अपने अधिकारों और कर्तव्यों दोनों का बोध हो। अगर जनता इतनी जागरूक हो जाए तो देश की तस्वीर ही बदल जाए। आज सरकारी दफ्तरों में भ्रष्टाचार, कामकाज में लेट-लतीफी, सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी ... जैसी समस्याएं मौजूद हैं तो इसकी जड़ में कहीं न कहीं कर्तव्यों के बोध का अभाव, जागरूकता की कमी है।प्राय: लोग यह सोचकर टाल देते हैं कि यह तो सरकार का काम है, सरकार ही करेगी। मैं क्या कर सकता हूं? यह सोच ठीक नहीं है। आज हम स्वतंत्र हैं, हमारे पास अपना संविधान है तो इसके पीछे करोड़ों लोगों का संघर्ष, उनकी मेहनत है। अगर वे यह सोचकर खुद को अलग कर लेते कि यह मेरा काम नहीं है तो आज हम कहां होते?
लोकतंत्र में देश चलाने और उसे बेहतरी की ओर लेकर जाने की जिम्मेदारी सिर्फ सरकार की नहीं है। निस्संदेह शासन की बागडोर सरकार के हाथ में होती है, लेकिन उसे यह शक्ति जनता ही देती है। लोकतंत्र सरकार को चुनकर उदासीन हो जाने का नाम नहीं है। जनता को हर दिन सरकार के कार्यों पर निगरानी रखनी होगी। जहां जरूरी हो, सवाल करने होंगे; ग़लत फैसला हो तो विरोध और सही फैसला हो तो तारीफ भी करनी होगी।
निस्संदेह लोकतंत्र के आलोक में भारत ने बहुत प्रगति की है, लेकिन अभी बहुत कुछ ऐसा करना शेष है, जो अब तक हो जाना चाहिए था। पौष्टिक भोजन, रोजगार, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं, स्वच्छ वातावरण समेत कई आवश्यकताएं हैं, जिनमें हमारी प्रगति संतोषजनक ही है, उत्कृष्ट नहीं है। इनकी गुणवत्ता में और सुधार करने की जरूरत है।
खासतौर से शिक्षा पर तो बहुत ध्यान देना होगा। देश में सरकारी स्कूलों के हालात को लेकर बहुत शिकायतें की जाती हैं। जैसे- यहां पढ़ाई का स्तर ठीक नहीं, पर्याप्त शिक्षक नहीं, सुविधाएं नहीं, पाठ्यक्रम समय पर पूरा नहीं होता, सफाई नहीं है। अगर कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएं तो सरकारी स्कूलों की तस्वीर कोई बहुत उत्साहजनक नजर नहीं आती है। यह धारणा मजबूत होती जा रही है कि सरकारी स्कूल तो कम आय वर्ग वालों के लिए हैं।
सरकारें आती हैं, चली जाती हैं। नेता बड़े-बड़े वादे करते हैं। कई-कई साल बाद शिक्षक भर्ती होती है। उनकी परीक्षाओं पर हल्ला मचता है। मामला कोर्ट-कचहरी में चला जाता है। अगर बीच में पेपर लीक हो जाए तो पूरी तैयारी पर पानी फिर जाता है। निस्संदेह सरकारी स्कूल उपेक्षा के शिकार हैं। अगर कहीं शिक्षक और स्थानीय लोग स्वप्रेरणा से ही कुछ कर लें तो परिणाम अच्छे आते हैं। संसाधनों की कमी से जूझते सरकारी स्कूलों की ओर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए जरूरी है कि सरकार और जनता दोनों भागीदार बनें।
सरकारी स्कूलों में सुविधाओं का विस्तार हो। प्रतिभाशाली विद्यार्थियों का हौसला बढ़ाया जाए। उन्हें स्कूली और (जहां आवश्यक हो) प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए पत्रिकाएं, पुस्तकें उपलब्ध कराई जाएं। आर्थिक सहायता भी दी जाए। जब सरकारी स्कूलों में शिक्षा और सुविधाओं का स्तर बेहतर होगा तो उसके नतीजे बेहतरीन आएंगे।