श्रद्धा और समर्पण से भक्ति बनती है शक्तिशाली: आचार्यश्री विमलसागरसूरी
ज्ञानयोग, तपयोग आदि कठिन हैं

भक्तियोग सबसे सरल है
कोप्पल/दक्षिण भारत। रविवार को स्थानीय महावीर समुदाय भवन में आयोजित चौबीस तीर्थंकर, गौतमस्वामी आदि सर्व गणधर, मणिभद्र देव, घंटाकर्ण वीर, पद्मावती, सरस्वती, अंबिका माता आदि के अनुष्ठान में श्रद्धालुओं को संबोधित करते हुए जैनाचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि जैन परंपरा की हजारों वर्ष प्रचीन अनेक मंत्र, यंत्र, चित्र, मूर्तियों और पूजन अनुष्ठानों की अमूल्य विरासत आज भी सुरक्षित है।
विदेशी संग्रहालयों में भी विपुल मात्रा में ऐसी सामग्री पाई जाती है। आधुनिक समाज के लिए यह अत्यंत उपयोगी है। मूर्तिपूजा के इतिहास में जो काम जैन परंपरा में हुआ है, शायद उतना कहीं नहीं हुआ। यहां तीर्थंकर अरिहंत और उनके उपासक देवी-देवताओं की भक्ति एवं साधना के लिए सर्वस्व समर्पित करने की गौरवशाली परंपरा रही है।आचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि श्रद्धा और समर्पण की भूमिका पर भक्ति शक्तिशाली बनती है। ज्ञानयोग, तपयोग आदि कठिन हैं, जबकि भक्तियोग सबसे सरल है। आध्यात्मिक साधना का यह प्रथम सोपान है।
भक्ति से भगवान की समीपता का अनुभव होता है। भक्ति से मन की एकाग्रता, सकारात्मक ऊर्जा और भावनात्मक वातावरण की निर्मिति होती है। भक्तियोग की साधना में भगवान के पूजन-अनुष्ठान महत्वपूर्ण और प्रभावशाली माने जाते हैं।
जैन परंपरा में विविध मंत्र विधानों, मुद्राओं और उत्तम पूजन सामग्री के द्वारा प्राचीन काल से भक्ति की धारा प्रवाहित है। पूजन-अनुष्ठान के लिए पीठिकाओं पर आदिनाथ, पार्श्वनाथ, माणिभद्र देव और घंटाकर्ण वीर की मूर्तियों तथा पार्श्व-पद्मावती, सूरिमंत्र एवं सरस्वती माता के विशिष्ट ताम्रयंत्रों की स्थापना की गई।
आचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी, गणि पद्मविमलसागरजी और सहवर्ती मुनिजनों ने सामूहिक मंत्रोच्चार पूर्वक महापूजन संपन्न कराया।
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