'पहाड़' न बन जाए यह 'बोझ'

ये घटनाएं अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती हैं

'पहाड़' न बन जाए यह 'बोझ'

कुछ रिश्तेदार युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ते रहते हैं

देश में आत्महत्याओं के बढ़ते मामले चिंताजनक हैं। पिछले कुछ वर्षों में आईएएस, आईपीएस, आईएफएस जैसे उच्च अधिकारियों और डॉक्टर, इंजीनियर जैसे अत्यंत सम्मानित पेशेवरों द्वारा भी ऐसे खौफनाक कदम उठाए जाने की घटनाएं चर्चा में रही हैं। जिस पद को पाने की करोड़ों युवाओं की ख्वाहिश होती है, जिन्हें बहुत लोग अपना आदर्श समझते हैं, जब वे इस तरह अपने जीवन को समाप्त करते हैं तो समाज को बड़ा धक्का लगता है। साथ ही, ये घटनाएं अपने पीछे कई सवाल छोड़ जाती हैं। जो लोग इतनी उच्च शिक्षा प्राप्त करते हैं, कड़ी प्रतिस्पर्द्धा के बाद चुने जाते हैं, उच्च कोटि का प्रशिक्षण लेते हैं, जिन्हें मुश्किल हालात का सामना करना सिखाया जाता है, वे ज़िंदगी के एक मोड़ पर आकर इतने कमजोर कैसे पड़ जाते हैं? हाल में दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाके में एक युवा आईएफएस अधिकारी ने इमारत से कूदकर अपनी ज़िंदगी खत्म कर दी! बताया जा रहा है कि वे कुछ महीनों से डिप्रेशन में थे। जुलाई 2023 में तमिलनाडु के एक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी की आत्महत्या का मामला बहुत चर्चा में रहा था, जिन्होंने अपनी सर्विस पिस्टल से खुद को गोली मार ली थी। उनके करीबी लोग इस घटना से हैरान थे। उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ये अधिकारी ऐसा कदम उठा सकते हैं। मीडिया में चर्चा थी कि बहुत शांत रहने वाले और लोगों से मुस्कुराकर मिलने वाले आईपीएस अधिकारी कुछ मानसिक समस्याओं का सामना कर रहे थे। उसी साल जून में लखनऊ में एक सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी ने खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी। उनके परिवार में किसी चीज की कोई कमी नहीं थी, लेकिन उन्होंने अपने पीछे जो नोट छोड़ा, उसमें लिखा था- 'मैं ... कर रहा हूं, क्योंकि चिंता और डिप्रेशन को बर्दाश्त नहीं कर सकता ... मैं अपनी ताकत और स्वास्थ्य खो रहा हूं ...।' पुलिस की नौकरी में अपराधों और मुश्किलों का दृढ़ता से सामना करने वाले वे अधिकारी डिप्रेशन से हार गए थे!

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ये तो कुछ उदाहरण हैं। इनके अलावा कांस्टेबल, हैंड कांस्टेबल जैसे कर्मचारियों से जुड़ीं ऐसी खबरें आती रहती हैं। आज लोगों में चिंता, तनाव, डिप्रेशन समेत विभिन्न मानसिक समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। इन पर खुलकर बात नहीं हो रही है। वैसे इन समस्याओं की शुरुआत स्कूल से हो जाती है, जब बच्चों पर अच्छा प्रदर्शन करने का दबाव आने लगता है। ज्यादा अंक लाने की होड़ के बीच अगर किसी पेपर में उम्मीदों के अनुरूप प्रदर्शन नहीं रहा तो उस विद्यार्थी को अंदर ही अंदर चिंता खाए जाती है। कॉलेज पास करने के बाद जब कोई युवा देखता है कि यह पढ़ाई मुझे नौकरी नहीं दिला सकती और अब कोचिंग करनी होगी तो डिप्रेशन सताने लगता है। कई लोगों को प्रतियोगी परीक्षा के दौरान भारी भीड़ देखकर डिप्रेशन होने लगता है कि इतने बेरोजगारों में मेरा नंबर कहां आएगा! अगर कहीं नौकरी लग गई तो भी मानसिक समस्याओं का अंत नहीं होता। कुछ रिश्तेदार और परिचित लोग अनावश्यक तुलना कर युवाओं का मानसिक स्वास्थ्य बिगाड़ते रहते हैं। किसका वेतन ज्यादा है? किसका पद ऊंचा है? किसका मकान सुंदर है? किसकी कार ज्यादा कीमती है? किसकी शादी ज्यादा अमीर खानदान में हुई है? किसका जीवनसाथी ज्यादा सुंदर है? कौन ज्यादा रसूख वाला है? जब देश का युवा इन सवाल-जवाब को पार करता हुआ आगे बढ़ता है तो कार्यस्थल पर ऐसी समस्याओं से सामना होता है, जिनके बारे में उसने कभी पढ़ा ही नहीं था। बॉस की फटकार, वरिष्ठ सहकर्मियों के दबाव और घरेलू माहौल से जुड़ीं जरूरतों के बीच संतुलन बनाता हुआ व्यक्ति कभी-कभी खुद को ऐसी स्थिति में पाता है, जहां वह बहुत अकेला और असहाय महसूस करता है। वास्तव में इन मानसिक समस्याओं का सामना करने के लिए न तो स्कूली दिनों में कुछ सिखाया जाता है और न ही ऐसी कोई ठोस व्यवस्था विकसित की गई है, जहां लोग अपने मन का बोझ हल्का कर सकें। मानसिक समस्याओं का असर घरों से लेकर सड़कों तक देखा जा सकता है, जहां लोग छोटी-छोटी बातों पर झगड़ा करने लगते हैं। कई बार ऐसे झगड़े बड़ी लड़ाई का रूप ले लेते हैं। ऐसे हालात को टालने के लिए जरूरी है कि लोगों को क्षमा और सहिष्णुता का प्रशिक्षण दिया जाए, और ऐसी व्यवस्था विकसित की जाए, जहां लोग अपने मन का वह बोझ उतार सकें, जिसे वे लेकर घूम रहे हैं। कई बार यह बोझ दु:खों का इतना बड़ा पहाड़ बन जाता है, जिसे लोग नहीं उठा पाते। फिर चाहे आम आदमी हो या बड़ा अधिकारी, हैं तो सब इन्सान ही!

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