तांडवः बदनाम होकर ‘नाम’ कमाने की घिनौनी मानसिकता

तांडवः बदनाम होकर ‘नाम’ कमाने की घिनौनी मानसिकता

तांडवः बदनाम होकर ‘नाम’ कमाने की घिनौनी मानसिकता

तांडव वेब सीरीज का एक दृश्य

‘अगर बदनाम हुए भी, तो क्या नाम नहीं होगा’ – वेब सीरीज ‘तांडव’ पर यह बात सटीक लागू होती है। यूं तो मनोरंजन के नाम पर सनातन धर्म, देवी-देवताओं और संतों का गलत चित्रण कर वाहवाही लूटने का सिलसिला पुराना है लेकिन जब से सोशल मीडिया और वेब सीरीज ने दस्तक दी है, हमारे धर्म, संस्कृति पर हमले तेज हो गए हैं।

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कुछ ‘बुद्धिजीवी’ इसे कला और अभिव्यक्ति की आज़ादी का नाम देकर पोषण देते हैं। अगर कोई इस पर आपत्ति जताता है तो इसे सेकुलरिज्म पर हमला करार दिया जाता है। उनके लिए सेकुलरिज्म के मायने परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं।

उनकी परिभाषा के अनुसार, अगर देवी-देवताओं, अवतारों पर अभद्र टिप्पणी की जाती है, अशालीन चित्र बनाया जाता है, तो यह कला है! अगर आप मंच पर खड़े होकर महापुरुषों पर चुटकुले बनाते हैं तो यह अभिव्यक्ति की आज़ादी है! लेकिन अगर आप इसका विरोध करते हैं तो यह असहिष्णुता है!

क्या आज सनातन मूल्यों पर प्रहार करने का नाम ही कला, सेकुलरिज्म और सहिष्णुता रह गया है? हमारा स्पष्ट मत है कि धर्म कोई भी हो, उसके देवताओं, पैगंबरों और महापुरुषों के प्रति आदरभाव व्यक्त किया जाना चाहिए, लेकिन सेकुलरिज्म और सहिष्णुता किसी एक की नहीं, सभी की जिम्मेदारी है।

आमिर खान की 2014 में आई फिल्म ‘पीके’ में सनातन धर्म का कितना मज़ाक उड़ाया गया था। फिल्म ने खूब कमाई की लेकिन आमिर को लगता है कि यहां के लोगों में असहिष्णुता बढ़ गई है!

‘तांडव’ में जिस प्रकार भगवान शिव और श्रीराम का गलत चित्रण किया गया है, उस पर लोगों द्वारा आपत्ति जताया जाना स्वाभाविक है। इसके एक दृश्य में शिवजी की भूमिका में नजर आ रहे जीशान अयूब से मंच संचालक कहता है, ‘नारायण-नारायण, प्रभु कुछ कीजिए। रामजी के फॉलोअर्स लगातार सोशल मीडिया पर बढ़ते ही जा रहे हैं।’

इस संवाद पर वहां मौजूद लोगों को हंसते और तालियां पीटते हुए दिखाया जाता है। दूसरे दृश्य में जीशान अयूब उन लोगों से पूछता है, ‘आखिर आपको किससे आजादी चाहिए?’

इसी प्रकार एक अन्य संवाद में काॅलेज के एक युवा और लड़की के संवाद में जातियों के बारे में विद्वेषजनक टिप्पणी की गई है। वेब सीरीजों में अपशब्दों का उपयोग तो अब आम बात होती जा रही है।

इन सबके बीच बड़ा सवाल यह है कि ‘हमारे देवी-देवता ऐसी फिल्मों और सीरीज के आसान टारगेट क्यों होते हैं? संभवतः निर्माताओं ने यह मान लिया है कि और दृश्यों की तरह दर्शक इन पर भी तालियां बजाएंगे। अगर कोई ऐतराज करे तो यह असहिष्णुता करार दी जाएगी।

इन ‘उदार हृदय वाले’ निर्माता, निर्देशकों, अभिनेताओं को उदारता पर प्रयोग करने के लिए सनातन धर्म और हिंदू समाज ही क्यों मिलता है? क्या वे अपने कैमरे का लेंस साफ कर, उसका एंगल बदलकर पात्रों, संवादों को कहीं और बदलने का प्रयास करेंगे? बिल्कुल नहीं, क्योंकि तब लेने के देने पड़ जाएंगे और छिपने के लिए धरती भी छोटी लगेगी।

इसलिए आसान निशाना तलाश किया जाता है, जो सनातन धर्म, संस्कार और मूल्यों के रूप में मिल जाता है। यह फिल्म या सीरीज को हिट कराने का फाॅर्मूला माना जाता है।

चूंकि निर्माताओं के पास वकीलों की टीम पहले से ही तैयार होती है। ऐसे में अगर जनता विरोधस्वरूप मामले दर्ज भी करा देती है तो उन्हें लंबा खींचने का प्रयास किया जाता है। तब तक मामला ठंडा पड़ जाता है और फिर किसी वेब सीरीज में मसाला डालकर ‘तांडव’ की तैयारी की जाती है।

अगर बात ज्यादा बढ़ी तो ‘माफी मांगकर’ पल्ला झाड़ने की कोशिश होती है लेकिन भविष्य में रवैया नहीं बदला जाता। अगर पिछली कुछ वेब सीरीज पर ही गौर करें तो देवी-देवताओं, जातियों, भारतीय सेना, भारतीय खुफिया एजेंसियों आदि को चुन-चुनकर निशाना बनाया गया है।

लिहाजा फिल्म या सीरीज निर्माताओं ने इसे अटल सत्य के तौर पर स्वीकार कर लिया है कि हम चाहे कुछ भी बनाएं, जनता देखेगी और हमारे खजाने में पैसे बरसाएगी। वास्तव में इनका एकमात्र उद्देश्य पैसा कमाना है। चाहे इसके लिए उन लोगों के धर्म को ही निशाना क्यों न बनाना पड़े जो इसे देखते हैं।

जनता को अपनी ताकत का अहसास होना चाहिए। उस ताकत का जो धनवर्षा से इनका खजाना भरती है। ऐसी सीरीज का आर्थिक बहिष्कार होना चाहिए। जब खजाने पर चोट पड़ेगी तो खुद ही अक्ल आ जाएगी। सोशल मीडिया पर विरोध प्रदर्शन करते समय भी मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। हमसे कमाकर हमें ही गालियां देने का सिलसिला अब नहीं चलेगा।

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