हरियाली का सुकून
हरियाली का सुकून
यह खबर सुकून देने वाली है कि देश के वन क्षेत्र में एक फीसदी की ब़ढोतरी हुई है। पिछले दो साल के मुकाबले अब यह ब़ढकर २४.४ फीसदी हो गई है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने इंडियन एस्टेट ऑफ फोरेस्ट रिपोर्ट-२०१७’’ में इस इजाफे का खुलासा किया है, जो उम्मीद जगाती है कि यदि सरकारें ईमानदार प्रयास करें तो स्थिति बदल सकती है। बहरहाल, इस स्थिति को भी बहुत संतोषजनक नहीं कहा जा सकता मगर यह धनात्मक परिवर्तन की उम्मीद जगाने वाला है। यह आंक़डा ऐसे समय में आया है जबकि वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम ने विश्व में पर्यावरणीय स्थिति को लेकर भारत की स्थिति पर दावोस में चिंता जताई थी। दुनिया के कुल १८० देशों की पर्यावरणीय स्थिति में भारत निचले पायदान पर ख़डा है। ऐसे में केवल सरकार ही नहीं बल्कि हर नागरिक का फर्ज बनता है कि देश में वन संपदा के संरक्षण को अपना धर्म बना ले। यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि स्वस्थ शरीर के लिए जहां अच्छा खाना व पानी जरूरी है वहीं साफ हवा भी उतनी ही जरूरी है। पर्यावरण प्रदूषण से होने वाली मानवीय क्षति का आंक़डा चिंता ब़ढाने वाला है। ऐसे में रिमोट सेंसिंग पद्धति से जुटाए गए आंक़डे उत्साह ब़ढाने वाले हैं। वैसे अभी यह स्पष्ट नहीं है कि वन क्षेत्र में हुई वृद्धि दर्शाने वाला क्षेत्र किस तरह के पे़डों से आच्छादित है। पे़डों का गुणात्मक नजरिये से देश की आबोहवा व जरूरतों के अनुरूप होना भी जरूरी है। दरअसल, देश के औपनिवेशिक शासन में वन संपदा का जिस तरह निर्ममता से दोहन किया गया, उसके चलते कई इलाकों में पारिस्थिकीय तंत्र चरमराया हुआ है। दूसरे, विकास योजनाओं में लाभ को तो आंका गया मगर पर्यावरणीय क्षति का आकलन नहीं किया गया, जिसके चलते वन क्षेत्र में सिकु़डन आई। इसकी चिंता समय-समय पर नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल जताता रहा है। मौजूदा वक्त में हर नई योजना घोषित होने से पहले विकास से उपजे पर्यावरणीय संकट पर भी गंभीर विचार किया जाना चाहिए। देश की भौगोलिक स्थिति के अनुरूप वन क्षेत्र का प्रतिशत ३३ फीसदी होना चाहिए, जिसके लिए भगीरथ प्रयास की जरूरत है। जरूरी है कि सरकार व इसके विभिन्न विभागों के साथ ही आम जनता की भागीदारी भी ब़ढे। पूर्वोत्तर राज्यों में वन संपदा के दोहन की स्थिति चिंताजनक है। केंद्र सरकार को वहां वन संपदा संरक्षण के लिए जन चेतना अभियान चलाना चाहिए। दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरा करने के लिए वनों पर निर्भर रहने वाले लोगों को प्रोत्साहन के जरिए वैकल्पिक उपायों के लिए मानसिक रूप से तैयार किया जाना चाहिए। यह भी महत्वपूर्ण है कि उन ब़डी निर्माण कंपनियों की जवाबदेही तय की जाए, जिनकी परियोजनाओं के अस्तित्व में आने से वन संपदा को क्षति पहुंचती है।