कौन सुनेगा गांवों की पुकार?
हमारे जनप्रतिनिधि आमजन की समस्याओं को लेकर कितने संवेदनशील हैं?
भारत में गोद लेने को उत्तम कार्य माना गया है। लोग बच्चों को गोद लेते हैं तो इसके पीछे भावना होती है कि उनका लालन-पालन कर बेहतर जीवन देंगे। इसी तरह जब जनप्रतिनिधि किसी गांव को गोद लेते हैं तो उम्मीद की जाती है कि वे उसके हालात बेहतर करेंगे, उसे आदर्श गांव बनाएंगे। इसके लिए बड़ी-बड़ी घोषणाएं कर वाहवाही तो हासिल कर ली जाती है, लेकिन धरातल पर आशानुकूल प्रगति दिखाई नहीं देती।
प्राय: उनके परिणामों से निराशा ही मिलती है। यह विडंबना ही है कि माननीयों को यह भी भान नहीं है कि उनके गोद लिए गांव की समस्याएं कौन-कौन सी हैं। दलील तो यह दी जाती है कि जब ग्रामीण समस्याएं बताएंगे तो उनका समाधान किया जाएगा, वास्तविकता इससे कहीं अलग होती है।इससे जाहिर होता है कि हमारे जनप्रतिनिधि आमजन की समस्याओं को लेकर कितने संवेदनशील हैं। यह कहा जाए तो ग़लत नहीं होगा कि गांव गोद लेने के पीछे जो उद्देश्य थे, उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न पूरे मनोयोग से नहीं हुए। बड़ी-बड़ी घोषणाओं से लोगों को उम्मीद दे दी गई, बदले में तारीफें भी मिलीं, लेकिन बात जब परिणाम की करें तो हालात ढाक के तीन पात जैसे ही नजर आते हैं। ये घोषणाएं माननीयों को लोकप्रियता तो दिला देती हैं, जनता के जीवन में सकारात्मक बदलाव नहीं लातीं।
इनके नतीजे निराशा पैदा करते हैं। अगर किसी गांव को आदर्श बनाने के लिए गोद लिया जाता है तो उसे उसी तरह समय भी दिया जाना चाहिए, जिस तरह एक बच्चे को गोद लेते समय अभिभावक से अपेक्षा होती है। जनता यह नहीं चाहती कि कोई उनके लिए आसमान के तारे तोड़ लाए, लेकिन कम से कम इतना तो हो कि उन्हें मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाएं। शिक्षा, पेयजल, स्वच्छता, रोज़गार, चिकित्सा जैसे क्षेत्रों से जुड़े मसले हल करना असंभव काम नहीं है। बस इसके लिए इच्छाशक्ति और परिश्रम चाहिए। अगर जनप्रतिनिधि इतना कर दें तो जनता उन्हें पाकर धन्य महसूस करेगी।
महात्मा गांधी कहते थे कि भारत गांवों का देश है, इसकी आत्मा गांवों में बसती है। कोरोना काल में जब कारखानों और बड़े उद्योगों का संचालन अवरुद्ध हो गया तो कृषि ने देश की अर्थव्यवस्था को और बड़े नुकसान से बचाया। गांवों के खलिहानों से देश के करोड़ों परिवारों तक नि:शुल्क राशन पहुंचा। लॉकडाउन का सख्त इम्तिहान पार करने में इस पहल ने बहुत योगदान दिया।
गांव और कृषि के महत्व को कभी कमतर नहीं समझना चाहिए। आज भी करोड़ों परिवारों रोजगार के लिए गांव और कृषि पर आश्रित हैं। शहरों की चमक-दमक से बहुत दूर झोपड़ी में रहने वाले किसानों ने देश का मस्तक हमेशा ऊंचा रखा है, लेकिन आज़ादी के सात दशक बाद भी उसे मूलभूत सुविधाओं का इंतजार है। गांव चाहते ही क्या हैं? यही कि बिजली मिल जाए, पानी की समस्या न हो, बच्चों के लिए शिक्षा व रोज़गार का प्रबंध हो जाए और जरूरत पड़ने पर चिकित्सा मिल जाए। अगर जनप्रतिनिधि इतना कर दें तो बाकी चीजें गांव खुद जुटा लेंगे, उनमें इतना जीवट और जज्बा है।
शहरों में जिस तरह प्रदूषण बढ़ा है, जनसंख्या का भारी दबाव है। उसके मद्देनजर गांव हमें कई समस्याओं से निकाल सकते हैं। हमारे शहर अब इस स्थिति में नहीं हैं कि वे जनसंख्या का और दबाव बर्दाश्त कर सकें। इसके लिए जरूरी है कि गांवों में ही मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराने पर जोर हो। अगर ग्रामवासी को गांव में ही शिक्षा, रोज़गार और मूलभूत सुविधाओं से जुड़े संसाधन मिल जाएं तो वह महानगरों की भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहेगा। कोई व्यक्ति अपनी खुशी से अपनी धरती और अपना घर नहीं छोड़ना चाहता। केंद्र और राज्य सरकारों को इस दिशा में अविलंब कार्य करना चाहिए।