चेहरों पर शराफत, दिलों में ...?
हमारे कुछ नेताओं में शत्रुबोध का अभाव है

हमसे झगड़ा मोल लेने के लिए पाकिस्तान सैकड़ों वजह पैदा कर सकता है
पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती का यह बयान कि 'जम्मू-कश्मीर को समझ, दोस्ती और सहयोग का पुल बनना चाहिए, युद्ध का अखाड़ा नहीं', उनकी एक नेक इच्छा तो हो सकती है, लेकिन वर्तमान में ऐसे शब्द कोई मायने नहीं रखते। खासकर तब, जब पहलगाम में हमारे देशवासियों पर इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ। उसके जवाब में भारत ने पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों को निशाना बनाया और उसने हमारे सैन्य प्रतिष्ठानों और आम नागरिकों पर हमला किया। भारत के सशस्त्र बलों की सतर्कता और वैज्ञानिक शक्ति के कारण पाकिस्तान के नापाक इरादे नाकाम हो गए। उसने तो तबाही मचाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी थी। जम्मू-कश्मीर भारत-पाक के बीच सहयोग का पुल कैसे हो सकता है, जब इस पड़ोसी देश ने अस्तित्व में आते ही उस पर हमला कर दिया था? हमारे कुछ नेताओं में शत्रुबोध का अभाव है, इसलिए वे ऐसे बयान देते हैं। हमें इस बात को समझने की जरूरत है कि भारत पर पाकिस्तान की ओर से बार-बार हो रहे आतंकी व सैन्य हमलों की वजह जम्मू-कश्मीर नहीं है। अगर इस केंद्रशासित प्रदेश को लेकर कोई विवाद न होता तो पाकिस्तान किसी दूसरे मुद्दे पर लड़ने को आमादा रहता। पाकिस्तान की ओर से किए जा रहे हमलों की वजह उसका 'दो क़ौमी नज़रिया' है, जो उसे भारत के साथ नफरत करने के लिए उकसाता है। अगर भारत सरकार बहुत उदारता दिखाते हुए पाकिस्तान की मौजूदा मांगें पूरी कर दे, तो भी वह कोई नया बखेड़ा पैदा करेगा। टीवी चैनलों और यूट्यूब चैनलों पर कुछ मासूम बुद्धिजीवी यह कहते मिल जाते हैं कि 'हम तो एक ही जैसे लोग हैं, बस कश्मीर का मुद्दा हल हो जाए, फिर कोई झगड़ा नहीं रहेगा', जो सरासर गलत है। हमसे झगड़ा मोल लेने के लिए पाकिस्तान सैकड़ों वजह पैदा कर सकता है।
महबूबा मुफ्ती द्वारा जम्मू-कश्मीर की तुलना 'दो लड़ते हाथियों के पैरों तले रौंदी गई घास' से करना भी समझ से परे है। इसे वोटबैंक की राजनीति कहा जाए या उनकी अनभिज्ञता? जम्मू-कश्मीर ने आतंकवाद का भयानक दौर देखा है। कश्मीरी पंडितों के साथ क्या हुआ था? क्या महबूबा मुफ्ती नहीं जानतीं? सिंधु जल संधि स्थगित किए जाने पर उनकी इस टिप्पणी में राजनीतिक परिपक्वता का अभाव झलकता है कि ‘पाकिस्तान की सरकार के साथ हमारे राजनीतिक मतभेद हो सकते हैं, लेकिन वहां के लोगों के साथ नहीं।' क्या भारत सरकार ने बेवजह इतना बड़ा फैसला ले लिया? क्या खून और पानी साथ-साथ बहते रहें और सरकार कोई सख्त कदम न उठाए? भारत ने पाकिस्तान की आम जनता का कभी अहित नहीं किया, बल्कि हमारे हिस्से का पानी भी उसे मिलता रहा। तीन बड़े युद्धों के बावजूद पानी बहता रहा। क्या पाकिस्तान की आम जनता ने कभी इसके लिए भारत को धन्यवाद कहा? क्या हमारे देश में हुए आतंकी हमलों के विरोध में वहां कोई जुलूस निकला? क्या पाकिस्तानी जनता कभी इस बात को लेकर अपनी फौज के खिलाफ मजबूती से खड़ी हुई कि दुश्मनी बंद करें, भारत से संबंध सुधारें? कभी नहीं, क्योंकि उसका ब्रेनवॉश हो चुका है। जब पहलगाम आतंकी हमले की खबर सोशल मीडिया पर आई तो पाकिस्तानियों की प्रतिक्रिया कैसी थी? उस पर बहुत लोग खुशी का इज़हार कर रहे थे। यह है पाकिस्तान की जनता! क्या 22 अप्रैल के बाद इस्लामाबाद, रावलपिंडी, लाहौर या कराची से एक व्यक्ति ने भी आवाज उठाई कि पहलगाम हमले के दोषियों को दंड मिलना चाहिए और आतंकवादियों के अड्डे बंद होने चाहिएं? भारत ने 'ऑपरेशन सिंदूर' चलाकर जिन आतंकवादियों का खात्मा किया, उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए सैन्य अधिकारियों के साथ कौन खड़ा था? इन आतंकवादियों को चंदा कौन देता रहा है? पाकिस्तानी जनता! चेहरों पर शराफत, दिलों में नफरत का खेल बहुत हो गया। अब पाकिस्तान के कर्मों का हिसाब होना ही चाहिए।