मजबूत करें एकता की माला

भारत में सभी भाषाओं, बोलियों के लिए सम्मान में बढ़ोतरी हुई है

मजबूत करें एकता की माला

हिंदी 'अनेकता में एकता' का संदेश देती है

तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 'हिंदी थोपने' संबंधी जो टिप्पणी की है, उसमें तथ्यों का अभाव है। किसी भाषा को 'थोपने' का अर्थ होता है- अन्य सभी भाषाओं को हटाते हुए सिर्फ एक भाषा में पढ़ाई, कामकाज आदि के लिए विवश करना, लोगों के पास कोई विकल्प ही न छोड़ना! हमारे देश में ऐसा कहां हो रहा है? कहीं भी नहीं, बल्कि भारत में सभी भाषाओं, बोलियों के लिए सम्मान में बढ़ोतरी ही हुई है। भारत इतनी ज्यादा विविधताओं से भरा हुआ है कि यहां एक भाषा को सब पर 'थोप' देना संभव नहीं है। इसके गंभीर दुष्परिणाम हो सकते हैं। इस तथ्य से हमारी सभी सरकारें परिचित रही हैं। देश की आजादी से पहले ही महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पं. जवाहर लाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे शीर्ष नेताओं ने इस पर बहुत मंथन किया था, सुझाव दिए थे और इस बात को लेकर सहमत थे कि सभी भाषाओं का सम्मान होना चाहिए, कोई भाषा किसी पर थोपी जानी नहीं चाहिए। जहां तक हिंदी का प्रश्न है तो इसमें अन्य भाषाओं को जोड़ने की भरपूर क्षमता है। अगर हमारी भाषाएं पुष्प हैं तो हिंदी ऐसा सुनहरा धागा है, जो सबको जोड़कर सुंदर माला बना सकती है। यह एकता की माला है। क्या देश में एकता नहीं होनी चाहिए? क्या देश में ऐसी भाषा नहीं होनी चाहिए, जिसके माध्यम से विभिन्न राज्यों के लोग एक-दूसरे से बातचीत कर सकें? अगर राजस्थान से कोई व्यक्ति प. बंगाल जाए तो हो सकता है कि उसे बांग्ला भाषा न आए। प. बंगाल से कोई व्यक्ति महाराष्ट्र जाए तो संभव है कि उसे मराठी भाषा का ज्ञान न हो। कोई गुजराती ओडिशा जाए तो वह रातोंरात उड़िया भाषा नहीं सीख सकता। कोई पंजाबी तमिलनाडु जाए तो वह तमिल भाषा में कैसे बात करेगा? इसके लिए हमें जरूरत है एक ऐसी भाषा की, जो संवाद की खिड़कियां खोले। अगर हिंदी में वह सामर्थ्य है तो किसी को इस पर आपत्ति नहीं होनी चाहिए।

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यह तो आनंद का विषय होना चाहिए कि हमारे पास भाषाओं का इतना बड़ा भंडार है और हिंदी 'अनेकता में एकता' का संदेश देती है। इसमें थोपने की बात कहां से आ गई? हम समस्त देशवासी इस पर गहराई से विचार करें। क्या हमारे पास एक ऐसी 'अपनी' भाषा नहीं होनी चाहिए, जिसमें सभी राज्यों के लोग आपस में बातचीत कर सकें? क्या पूरा विरोध हिंदी के प्रति ही है? क्या हिंदी की जगह अंग्रेजी को दे दी जाए तो कोई समस्या नहीं रहेगी, सभी विवाद समाप्त हो जाएंगे? अंग्रेजी का अपनी जगह महत्त्व है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। क्या यह भाषा हमारी भावनाओं को सही-सही अभिव्यक्त कर सकती है? क्या अंग्रेजी हमें जोड़ सकती है? अगर अंग्रेजी से ही सभी कार्य संपन्न हो जाते तो तकनीक के क्षेत्र की बड़ी-बड़ी कंपनियां, जो भारत में कारोबार कर रही हैं, वे हिंदी में सेवाएं क्यों दे रही हैं? आंकड़े गवाह हैं, जिन कंपनियों ने अंग्रेजी के अलावा हिंदी में सेवाएं उपलब्ध कराईं, उनके कारोबार में बढ़ोतरी हुई। ऑनलाइन परामर्श देने वाली एक फर्म, जो पहले सिर्फ अंग्रेजी में सेवाएं देती थी, जब उसने हिंदी में भी सेवाएं देनी शुरू कीं तो उसके ग्राहकों की संख्या में जोरदार बढ़ोतरी हुई। एमके स्टालिन ने हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं का मुद्दा उठाते हुए यह कहा कि इसने कितनी ही 'भारतीय भाषाओं' को निगल लिया! इसके लिए उन्होंने भोजपुरी, मैथिली, अवधी, ब्रज, बुंदेली, गढ़वाली, कुमाऊंनी, मगही, मारवाड़ी, मालवी, छत्तीसगढ़ी आदि का उदाहरण दिया। वास्तव में हिंदी की वजह से हमारी अन्य भाषाएं समृद्ध हुई हैं। आज सोशल मीडिया पर इन भाषाओं / बोलियों के वीडियो हिंदीभाषी परिवारों में खूब देखे जाते हैं, क्योंकि इनमें हिंदी के शब्द शामिल हो गए हैं। कौनसा राज्य है, जहां शादियों में हिंदी, पंजाबी और भोजपुरी के गाने नहीं बजाए जाते? क्या मैथिली, अवधी, ब्रज आदि में धार्मिक भजन सिर्फ उप्र-बिहार में सुने जाते हैं? इनके वीडियो पर आने वाले कमेंट देखिए। हिंदी से किसी की मातृभाषा को खतरा होने का तर्क हास्यास्पद है। मातृभाषा का संरक्षण करना है तो घरों में ऐसा माहौल बनाएं, खासकर बच्चों के साथ मातृभाषा में बातचीत करें। इससे कौन रोक रहा है? प्राय: जब छोटा बच्चा 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार' सुनाता है तो बड़ों को गर्व की अनुभूति होती है, वे बच्चे की पीठ थपथपाते हैं। क्या वैसी ही अनुभूति उस समय होती है, जब बच्चा 'रहिमन धागा प्रेम का' सुनाता है? क्या उस समय वैसी तारीफ की जाती है? हिंदी का किसी भाषा से कोई विरोध है ही नहीं। नेतागण भाषाओं के नाम पर विवाद खड़ा करने के बजाय रोजगार, शिक्षा की गुणवत्ता, प्रशासनिक सुधार, बेहतर परिवहन सुविधा और खेती जैसे मुद्दों की ओर ध्यान दें, ताकि लोगों का जीवन बेहतर हो।

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