इस भेदभाव को रोकें

दृश्य मीडिया और फिल्में ऐसा माध्यम हैं, जिनका समाज पर बहुत गहरा असर होता है

इस भेदभाव को रोकें

प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने अपने फैसले में जो कहा, वह एक मार्गदर्शन भी है

उच्चतम न्यायालय ने दृश्य मीडिया और फिल्मों में दिव्यांग व्यक्तियों की नकारात्मक छवि गढ़ने से भेदभाव और असमानता को बढ़ावा मिलने का जिक्र कर समाज के उन लोगों की पीड़ा को आवाज दी है, जिसकी प्राय: अनदेखी की जाती है। हाल के वर्षों में फिल्मों और वेब सीरीजों में जिस तरह भाषा की मर्यादाएं टूटी हैं, वह बहुत चिंताजनक है। मनोरंजन के नाम पर अभद्र और आपत्तिजनक शब्दों की इतनी बौछार हो चुकी है कि अब लोग उसके अभ्यस्त होने लगे हैं। कई फिल्मों में दिखाए गए ऐसे किरदार, जिन्हें आंखों से कम दिखता हो, शारीरिक कद का सामान्य ढंग से विकास न हुआ हो, बहुत मोटापा या दुबलापन हो, रंग सांवला हो, बोलने में दिक्कत हो, सिर पर बाल कम हों या स्वास्थ्य संबंधी कोई समस्या हो तो उनके साथ ऐसे संवाद जोड़े जाते हैं, जिन्हें सुनकर लोग ठहाके लगाते हैं। ये संवाद उन लोगों को तीर की तरह चुभते हैं, जिनके साथ असल ज़िंदगी में ऐसी बातें जुड़ी हों। दिव्यांगता जैसे मामलों में तो फिल्म निर्माताओं को खास ध्यान रखना चाहिए कि वे किसी पात्र को इस तरह पेश न करें कि ज़िंदगी में कुछ लोगों के लिए चुनौतियां बढ़ जाएं। प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने अपने फैसले में जो कहा, वह एक मार्गदर्शन भी है - 'शब्द संस्थागत भेदभाव पैदा करते हैं और दिव्यांग लोगों के बारे में ‘अपंग’ और ‘मंदबुद्धि’ जैसे शब्द सामाजिक धारणाओं में निचले दर्जे के समझे जाते हैं। ... दृश्य मीडिया को दिव्यांग व्यक्तियों की विविध वास्तविकताओं को चित्रित करने का प्रयास करना चाहिए। उसे न केवल उनकी चुनौतियों, बल्कि सफलताओं, प्रतिभाओं और समाज में उनके योगदान को भी प्रदर्शित करना चाहिए। मिथकों के आधार पर न तो उनका मजाक उड़ाया जाना चाहिए और न ही उन्हें असाधारण के रूप में पेश किया जाना चाहिए।’

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दृश्य मीडिया और फिल्में ऐसा माध्यम हैं, जिनका समाज पर बहुत गहरा असर होता है। इनमें ऐसी भाषा से बचना चाहिए, जिससे किसी को पीड़ा देकर मनोरंजन की कोशिश की जाती है। समाज के किसी भी हिस्से के बारे में नकारात्मक छवि गढ़ने के बाद उसे दूर करने में बहुत वक्त लगता है। कई बार यह छवि इतनी मजबूती से पकड़ बना लेती है कि उसका असर दशकों तक कायम रहता है। उदाहरण के लिए- आज़ादी के बाद बनीं कई फिल्मों में समाज के कुछ वर्गों को लेकर ऐसी नकारात्मक छवि बना दी गई, जिससे देश आज तक मुक्त नहीं हो सका है। यही नहीं, उससे देश को नुकसान भी उठाना पड़ा है। ऐसी कई फिल्में बनी हैं, जिनमें व्यवसायी को लोगों का 'शोषण' करते हुए ही दिखाया गया। बच्चों के मन में यह बात बैठाई गई कि पढ़ाई-लिखाई का एकमात्र उद्देश्य ऐसी सरकारी नौकरी हासिल करना है, जिसमें आप कुर्सी पर बैठे रहें ... अगर पुश्तैनी काम करेंगे, दुकान लगाएंगे, कारखाना खोलेंगे तो यह ठीक नहीं है! ऐसी फिल्में गिनी-चुनी होंगी, जिनमें व्यवसायी वर्ग को नि:शुल्क पाठशालाएं खुलवाते, धर्मशालाएं व अस्पताल बनवाते, प्याऊ लगवाते, कुआं खुदवाते और जरूरतमंद परिवारों की मदद करते दिखाया गया हो। प्राय: फिल्मों में एक समुदाय को ऐसे दिखाया जाता है, गोया उसके सभी लोगों के पास पुरखों का छोड़ा हुआ बहुत बड़ा खजाना है, जो उन्होंने अनुचित तरीके से हासिल किया था। जबकि वह समुदाय बहुत मेहनती और प्रतिभाशाली है। उसने शिक्षा और जनजागरण के क्षेत्र में बहुत काम किया, लेकिन उसकी उपेक्षा की जाती है। दुर्भाग्यवश कई लेखकों ने भी खुद को प्रगतिशील व आधुनिक घोषित करने के लिए उस पर खूब निशाना साधा। हमें ऐसे मामलों में और संवेदनशीलता दिखानी होगी। दृश्य मीडिया और फिल्मों में ऐसी सामग्री नहीं दिखानी चाहिए, जो किसी के रूप-रंग, दिव्यांगता या किसी खास समुदाय में जन्म लेने को इस तरह पेश करे, जिससे लोगों की भावनाओं को ठेस पहुंचती है।

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