जीत गई जिंदगी
इस संकट के समय बचाव में जुटे कर्मियों के बीच जो एकजुटता थी, उससे हारकर चट्टानों को भी रास्ता छोड़ना पड़ा

ऐसी विपत्ति में फंसने के बाद संबंधित लोगों के लिए अपना मनोबल मजबूत रखना जरूरी होता है
उत्तराखंड की सिलक्यारा सुरंग में करीब 17 दिनों तक फंसे रहने के बाद 41 श्रमिकों का सकुशल बाहर निकल आना किसी चमत्कार से कम नहीं है। हादसे के बाद जैसे-जैसे दिन गुजरते जा रहे थे, अनिष्ट की आशंका सता रही थी, लेकिन सभी अवरोधों और आशंकाओं पर ज़िंदगी की जीत हुई, भारत की जीत हुई। दुनियाभर के मीडिया का ध्यान इस ओर था। श्रमिकों के परिवारों के साथ पूरा देश उनके सकुशल निकल आने के लिए प्रार्थना कर रहा था।
इस संकट के समय बचाव में जुटे कर्मियों के बीच जो एकजुटता थी, उससे हारकर चट्टानों को भी रास्ता छोड़ना पड़ा। यही एकजुटता समस्त देशवासियों में हो तो बड़ी-बड़ी चुनौतियों का निवारण हो सकता है। विदेशी मीडिया का एक वर्ग इस ताक में था कि बचाव अभियान में कहीं कुछ गड़बड़ हो तो उसे भारत को आड़े हाथों लेने का मौका मिले, लेकिन ईश्वर की असीम कृपा रही।इन श्रमिकों के जीवन के लिए प्रधानमंत्री से लेकर गांव के किसान तक प्रार्थना कर रहे थे। जब कल्याण की भावना इतनी बलवती हो तो ईश्वर कृपा अवश्य करते हैं। किसी देश के लिए सड़कें, सुरंगें, पुल आदि विकास की गति को तेज करते हैं। प्राय: इनके उद्घाटन के अवसर पर नेतागण और अधिकारियों के नामों की तो चर्चा होती है, लेकिन श्रमिक एक तरह से गुमनाम ही होता है। उसके खून-पसीने के बिना यह काम संभव नहीं होता।
इन कार्यों में कितना जोखिम होता है, यह हमने सिलक्यारा सुरंग मामले में देखा। इस घटना की विस्तृत जांच होनी चाहिए। हादसे के पीछे क्या कारण थे, श्रमिकों को निकालने में इतना समय कैसे लगा, भविष्य में ऐसे हादसों को कैसे टाला जाए? विशेषज्ञों को इन बिंदुओं पर शोध करना चाहिए। तकनीकी शिक्षा से जुड़े विश्वविद्यालयों और महाविद्यालयों में इस पर चर्चा होनी चाहिए।
ऐसी विपत्ति में फंसने के बाद संबंधित लोगों के लिए अपना मनोबल मजबूत रखना जरूरी होता है। अगर संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग करते हुए मनोबल मजबूत रखें तो विपत्ति हारती है और हौसला जीतता है। सुरंग से बाहर निकलने के बाद एक श्रमिक विशाल ने जो कहा, वह किसी कुशल वक्ता के प्रेरक भाषण से ज्यादा असरदार था। उन्होंने कहा, 'हमने उम्मीद का दामन कभी नहीं छोड़ा था।' सच है, अगर मन में उम्मीद की लौ जलती रहे तो कोई भी अंधेरा हमें हरा नहीं सकता।
ये श्रमिक अपने मनोबल की मजबूती के लिए योग भी करते थे। एक श्रमिक अनिल बेदिया का यह कहना कि उन्होंने हादसे के बाद अपनी प्यास बुझाने के लिए चट्टानों से टपकते पानी को चाटा और शुरुआती दस दिनों तक मुरमुरे खाकर जीवित रहे। इस अनुभव ने ऐसी मुश्किल परिस्थितियों में जीवन की रक्षा करने के लिए शोध का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। निस्संदेह योग तन और मन को स्वस्थ रखता है। क्या ऐसी परिस्थिति में मुरमुरे पर्याप्त पोषण के बेहतरीन स्रोत हो सकते हैं? क्या उनके साथ किसी और खाद्य पदार्थ का मिश्रण कर पोषण के स्तर को बढ़ाया जा सकता है? ऐसे अनुभव भविष्य में बहुत सहायक सिद्ध हो सकते हैं।
याद करें, केदारनाथ में साल 2013 में आई आपदा के बाद कई लोग पहाड़ों में फंस गए थे। इसके अलावा दुनियाभर में हर साल भूकंप, बाढ़ और अन्य प्राकृतिक आपदाओं में लोग फंस जाते हैं। भारतीय श्रमिकों के अनुभव से वे लोग कैसे लाभान्वित हो सकते हैं? इस पर आपदा राहत से जुड़े संगठन अध्ययन करें।
प्राय: लोगों को अपने रोजमर्रा के कामकाज के बारे में तो जानकारी होती है, लेकिन आपदा में खुद को सुरक्षित रखने को लेकर कोई विचार या अनुभव नहीं होता है। जब कभी वैसी परिस्थिति आती है तो ज्यादातर लोग घबरा जाते हैं। चाहे भूकंप हो या भूस्खलन, अग्निकांड, बाढ़ या सुनसान जगह में फंस जाने की घटना, स्कूल-कॉलेज के विद्यार्थियों को बचाव का प्रशिक्षण जरूर देना चाहिए।
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