इमरान का नाटक

इमरान का नाटक

इमरान को राजनीति में फौज ही लाई थी


पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान 'सियासी शहीद' का दर्जा पाना चाहते हैं, लेकिन यह भी ख्वाहिश रखते हैं कि वे ज़िंदा रहें और सियासत (राजनीति) करते रहें। लाहौर से शुरू किया गया 'हक़ीक़ी आजादी मार्च' भी इसी का एक हिस्सा है। इमरान आए दिन पाक फौज और आईएसआई को आड़े हाथों ले रहे हैं, लेकिन एजेंसियां समझ नहीं पा रही हैं कि उनके साथ करें तो क्या करें! 

अगर वे इमरान को गिरफ्तार करती हैं तो यकीनन ये पूर्व प्रधानमंत्री 'सियासी शहीद' कहलाएंगे, जिससे उनकी लोकप्रियता बहुत बढ़ जाएगी। बहुत संभव है कि वे अगले चुनाव में भी बाजी मार जाएं। अगर उन्हें गिरफ्तार नहीं करती हैं तो वे इसी भांति फौज और एजेंसियों की नाक में दम करते रहेंगे। 

वैसे इमरान को राजनीति में फौज ही लाई थी। उन्हें शरीफ घराने का प्रतिद्वंद्वी बनाकर पेश किया गया था। इमरान पूर्व फौजी तानाशाह परवेज मुशर्रफ के करीबी रहे हैं। उन्हें यह सोचकर स्थापित किया गया था कि वे सेलिब्रिटी हैं, जिससे दुनिया को भ्रम होगा कि अब पाकिस्तान बदल रहा है, यहां तब्दीली आ रही है, दुनिया मदद के नाम पर डॉलरों की बारिश करेगी, जिससे फौजी जनरल अपने महलों में ऐश करेंगे, लेकिन मामला उलटा पड़ गया।

इमरान न तो शासन में कोई कमाल दिखा पाए और न अर्थव्यवस्था का कुछ भला कर सके। बल्कि उनके सत्ता में आने के बाद पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बुरी तरह तबाह हो गई। खजाना खाली हो गया और एक अरब डॉलर के लिए हाथ फैलाने पड़े। स्वयं सेना प्रमुख जनरल बाजवा को इस सिलसिले का हिस्सा बनना पड़ा, जो यकीनन किसी सैनिक के लिए बहुत शर्मिंदगी भरा है। आखिरकार इमरान की सरकार गिराकर फौज ने अपना पीछा छुड़ाया, लेकिन इमरान भी सियासी नाटक में पारंगत हो चुके हैं। उन्हें उपचुनाव में सफलता मिली तो दोबारा मैदान में उतर आए।

इमरान लाहौर के लिबर्टी चौक पहुंचकर लोगों को संबोधित कर केवल चुनाव प्रचार ही नहीं कर रहे, वे स्वयं को पीड़ित की तरह भी पेश कर रहे हैं। उन्होंने कहने को तो यह मार्च केन्या में मारे गए पत्रकार अरशद शरीफ़ और पाकिस्तान में उन संस्थाओं और व्यक्तियों के नाम किया है, जो सरकार की तरफ से 'गंभीर दबाव' का सामना कर रहे हैं, लेकिन असल मकसद खुद को प्रासंगिक बनाए रखना, चर्चा में रहना और एजेंसियों से 'दो-दो हाथ' करते दिखना ही है। 

आज इमरान इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस के महानिदेशक को खरी-खोटी सुना रहे हैं, डीजी आईएसआई को ललकार रहे हैं, लेकिन वे जानते हैं कि फौज के सहयोग के बिना पाकिस्तान में कोई भी सत्ता में नहीं रह सकता। वे अपने देश के पूर्व प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार अली भुट्टो से जरूर परिचित होंगे, जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय नेता होने के बावजूद फांसी के फंदे से नहीं बच सके थे। 

हालांकि आज हालात उतने सख्त नहीं हैं। सोशल मीडिया के प्रसार और वैश्विक संगठनों के दबाव के कारण इतने उच्च पद पर रहे नेता को बहुत कठोर दंड देना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है। ऐसे में इमरान इस बात को लेकर निश्चिंत हैं कि उनके साथ फौज जो भी करेगी, वे कम से कम दूसरे 'भुट्टो' तो नहीं बनेंगे, जिन्हें तानाशाह ने रात के अंधेरे में फांसी पर लटका दिया था। इसलिए वे फौज, आईएसआई को अपनी ताकत का अहसास कराना चाहते हैं। वे यह संदेश देना चाहते हैं कि पाकिस्तान के असल नेता वे ही हैं, बाकी सब कठपुतली हैं। 

अगर अगले चुनाव तक जनता का एक बड़ा हिस्सा उनके पाले में आ जाता है और वे सत्ता के करीब पहुंच जाते हैं तो पाक फौज, आईएसआई और जिन एजेंसियों को अभी दिन-रात कोस रहे हैं, हाथ मिलाने से भी नहीं हिचकेंगे।

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