सामाजिक सरोकार: घर-घर की कहानी ऐसी क्यों?

सामाजिक सरोकार: घर-घर की कहानी ऐसी क्यों?

सामाजिक सरोकार: घर-घर की कहानी ऐसी क्यों?

दक्षिण भारत राष्ट्रमत के समूह संपादक श्रीकांत पाराशर

श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत राष्ट्रमत

इधर लड़के के माता-पिता बड़े लाड़ चाव से अपने पढे लिखे बेटे की शादी के संबंध में तरह तरह के सपने संजोते हैं। परिवारजनों में महिनों पहले से ही एक अनूठे उत्साह का संचार हो जाता है। शादी की तैयारियां शुरू हो जाती हैं। उधर लड़की के माता- पिता भी अपनी बिटिया के हाथ पीले करने को उत्साहित रहते हैं। दुल्हन के गहने, कपड़े से लेकर मेहमानों की सब प्रकार की व्यवस्था के लिए सूक्ष्म से सूक्ष्म बिंदु पर भी ध्यान दिया जाता है। लड़की भी बहुत सारे सपने लेकर ससुराल जाती है। बड़े अरमानों के साथ दोनों ही पक्ष अपनी अपनी संतान का विवाह धूमधाम से करते हैं, आयोजन को एक उत्सव की तरह मनाते हैं परंतु कुछ समय बाद जब इन खुशियों को ग्रहण लग जाता है तो अरमानों के आसियां ताश के पत्तों की तरह ढह जाते हैं। आजकल तो यह घर घर की कहानी की भांति हो गया है। हालांकि हर शादी का हश्र ऐसा नहीं होता परंतु आए दिन वैवाहिक रिश्तों में आई दरार के समाचार मिलते रहते हैं। आजकल शादी के कुछ समय बाद ही परेशानियां शुरू हो जाती हैं और धीरे धीरे छोटी छोटी चिनगारियाँ आग का रूप धारण कर लेती हैं। इसकी परिणति बहुत दुखद होती है। गलती किस पक्ष की कितनी होती है, यह अलग विषय है परंतु ऐसा होना ही गहरा दुखदायी है।

ऐसा क्यों होता है, इस पर समूचे समाज को अपने अपने स्तर पर चिंतन करने की जरूरत है और समय रहते हुए व्यक्तिगत स्तर पर और सामाजिक स्तर पर ऐसा कुछ अच्छा करने की जरूरत है कि यह परेशानी आये ही नहीं। दरअसल, हर व्यक्ति यही सोचता है कि ऐसी परेशानी मुझे तो आने वाली है नहीं, या मेरे परिवार में तो आयेगी नहीं, दूसरों के घर में क्या हो रहा है, इससे हमें क्या? सच्चाई यह है कि जब तक दूसरों की ऐसी परेशानी को हम अपनी नहीं समझेंगे तब तक समस्या तो खत्म होगी नहीं, बल्कि हम भी उस आंच के घेरे में आ जाएं, ऐसी आशंका बनी रहेगी। हर व्यक्ति की जान पहचान में, कुटुंब-परिवार में, मित्र- रिश्तेदारी में कहीं न कहीं, कोई न कोई इस समस्या से परेशान है और हम सब उस व्यक्ति और उस परिवार को अकेला छोड़ देते हैं यह कहकर कि किस्मत में जो लिखा है उसे स्वीकार करना पड़ेगा, कोई कुछ मदद नहीं कर सकता।

आज हम समय समय पर हमारे पूर्वजों की परंपराओं और रीतिरिवाजों को किसी न किसी बहाने कोसते रहते हैं परंतु उनमें छिपी वैज्ञानिक व मनोवैज्ञानिक व्यवस्थाओं को समझ ही नहीं पाते। पहले लड़का लड़की का संबंध तय करते समय परिवार, उस परिवार की हैसियत, लड़के की परिवार के पालन पोषण की योग्यता, लड़की की शिक्षा, स्वभाव, संस्कार आदि देखे जाते थे। इन सबकी जानकारी आसानी से मिल जाती थी क्योंकि संयुक्त परिवार व्यवस्था थी और सामाजिक रूप से लोग आपस में किसी न किसी रूप में जुड़े होते थे। लोगों में आंख की शर्म थी। समय बदला तो परिस्थितियां भी बदलीं। इसमें कुछ आश्चर्यजनक नहीं है क्योंकि यह भी अवश्यंभावी था। लेकिन समस्या तब पैदा हुई जब हम समय से भी ज्यादा गति से दौड़ने लगे, ऐसे में समय से चार कदम आगे पहुंचने की कुचेष्टा के कारण धड़ाम से गिरना स्वाभाविक था।

आज लड़का लड़की का दर्जा बराबर का है, शिक्षा में भी कोई किसी से कम नहीं। वर्तमान में महत्वाकांक्षाओं ने सबको अधिक से अधिक कमाने और कमाई को खर्च करने की प्रवृत्ति दी है। ऐसे में कोई किसी पर निर्भर नहीं है। लड़के को अच्छी कामकाजी पत्नी चाहिए और लड़की को भी भरपूर स्वतंत्रता चाहिए जिसमें सास ससुर का दखल जरा भी न हो। उधर सास-ससुर को अपने समय की गाथायें गाने से फुर्सत नहीं। समय कहां से कहां पहुंच गया, यह समझने को वे तैयार नहीं। वह यह नहीं समझ पाते कि बहू पर सास के हावी होने का समय गया, बल्कि घर में अपनी जगह बनाए रखने के लिए ही जद्दोजहद करनी पड़ती है। बराबरी के एग्रीमेन्ट जैसी हुई आजकल की शादी में पति पत्नी के बीच अहम का टकराव मानो हर छोटी बड़ी बात में बस उलझने को उतारू रहता है। ऊपर से मोबाइल फोन की पैट्रोल जैसी भूमिका अलग।

लड़का हो या लड़की, रिश्तेदारों से लेकर कार्यालयीन कुलीग तक से घर की अंतरंग छोटी छोटी बातों को शेयर करना भी पति पत्नी के रिश्ते में खटास पैदा करने का काम करता है। नई पीढी की “आमदनी अट्ठन्नी, खर्चा रुपैया” प्रवृत्ति घरेलू लड़ाई झगड़े को हवा देने का काम करती है। लड़के की योग्यता और स्वभाव आदि को ज्यादा अहमियत देने के बजाय लड़का सुंदर- स्मार्ट है और खानदानी पैसे वाला है, घर में खूब नौकर-चाकर, गाड़ियां हैं, इनको उपलब्धि मानकर लड़की के माता पिता रिश्ता तय कर देते हैं और बाद में उन्हें गलती का अहसास होता है। लड़कियां भी चाहती तो हैं कि ससुराल में उन्हें बेटी जैसा बर्ताव मिले परंतु वे अपने सास ससुर को माता पिता मानने को तैयार नहीं होतीं। उधर सास ससुर भी अपनी बेटी और बहू के लिए हर मामले में सोच के अलग अलग मापदंड रखते हैं। उन्हें अपनी बेटी के लिए उसके ससुराल में जो जो अपेक्षाएं रहती हैं, वही सब कुछ अपनी बहू के लिए करने को तैयार नहीं। इसलिए परिवार में सामंजस्य कभी बैठता नहीं। ऐसे में, किसी एक पक्ष को दोषी ठहराना सही नहीं, अलग अलग मामलों में अलग अलग पक्ष गलत होता है। परिणाम यह होता है कि या तो परस्पर सहमति से तलाक हो जाता है या न्यायालय तक मामला चला जाता है।

कभी कभी यह समझना मुश्किल होता है कि अरेन्ज्ड मैरिज में तो ऐसी समस्याएं आती हैं लेकिन लव मैरिज भी नहीं टिक पातीं जबकि वे तो प्यार को केंद्र में रखकर की जाती हैं। आज समाज में, चाहे वह कोई भी समुदाय हो, यह बड़ा संकट है। इस विषय पर सामाजिक स्तर पर सामूहिक रूप से भी सोचने, चर्चा करने और समाधान ढूंढने का समय आ गया है। सामाजिक संस्थाएं भी बाकी समाजसेवी कार्य कितने भी कर लें, यदि इस दिशा में ध्यान नहीं देंगी तो हमारा सामाजिक ताना बाना अंदर से बिखर जाएगा। इसलिए पहले घर को संभालना जरूरी है। इस विषय पर सेमिनार, संगोष्ठियां, टाक शो होने चाहिएं, डिबेट कंपीटिशन होने चाहिएं, सामाजिक जागरूकता के लिए जो जो प्रयास संभव हों वे सब करने चाहिएं।

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