बिहार चुनाव में कितनी कारगर साबित होगी उम्मीदवारों की जाति और सोशल इंजीनियरिंग?
बिहार चुनाव में कितनी कारगर साबित होगी उम्मीदवारों की जाति और सोशल इंजीनियरिंग?
नई दिल्ली/भाषा। कोरोना वायरस संक्रमण के समय बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव पर सभी की नजरें टिकी हैं। राज्य की राजनीति में बेरोजगारी, पलायन, आधारभूत ढांचे तथा शिक्षा एवं स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़े मुद्दे छाए हुए हैं, लेकिन इस सबके विपरीत राज्य में जाति और ‘सोशल इंजीनियरिंग’ जैसे तरीके सत्ता प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। एनएन सिन्हा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक डीएम दिवाकर का भी यही मानना है। पेश हैं उनसे पांच सवाल और उनके जवाब।
सवाल: कोविड-19 महामारी के दौरान होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव को कितना अलग और कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?जवाब: यह चुनाव कोरोना वायरस संक्रमण के समय में हो रहा है। ऐसे में जनता और राजनीतिक दलों के नेताओं के बीच पहले की तरह सीधा और सक्रिय संवाद नहीं हो पाएगा। राज्य में कई स्थानों पर अभी भी बाढ़ का प्रभाव है, ऐसे में कई स्थानों पर नेताओं का पहुंचना भी मुश्किल होगा। जहां तक डिजिटल माध्यम से संपर्क का सवाल है तो राज्य में 20 से 30 प्रतिशत लोग ही कुशलता से ऑनलाइन माध्यम का उपयोग कर पाते हैं। ऐसे में चुनाव चुनौतीपूर्ण है और इस बार मतदान का प्रतिशत भी कम रहेगा। राज्य के मतदाताओें और कई राजनीतिक दलों के नेतृत्व में पीढ़ी परिवर्तन के बीच भविष्य के लिए इसके परिणाम महत्वपूर्ण साबित होंगे।
सवाल: बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के लिए कितना मुश्किल या आसान होगा सत्ता में वापसी करना?
जवाब: चुनाव में नीतीश सरकार को 15 साल की सत्ता विरोधी लहर का सामना करना पड़ सकता है। गरीबी, बेरोजगारी, पलायन राज्य में हमेशा से ज्वलंत मुद्दे रहे हैं। एक बड़ी दिक्कत छात्रों की नाराज़गी और शिक्षकों की ‘समान काम समान वेतन’ की मांग से जुड़ी है। कोविड-19 के दौरान लॉकडाउन में प्रवासी मज़दूरों की देखरेख की व्यवस्था पर असंतोष और किसानों की नाराजगी भी सरकार के खिलाफ मुद्दा है। अब देखना यह होगा कि विपक्षी महागठबंधन इन सब मुद्दों को अपने पक्ष में कितना भुना पाता है।
सवाल: नीतीश कुमार विकास को अपनी उपलब्धि के रूप में गिनाते हैं, क्या विकास सही अर्थों में चुनाव का मुद्दा बन सका है?
जवाब: उम्मीदवारों के लिए जाति उनका सबसे बड़ा गुण और ‘सोशल इंजीनियरिंग’ राजनीतिक दलों के लिए सत्ता प्राप्ति का सबसे आसान रास्ता हो गया है। उम्मीदवारों का चयन भी जाति के आधार पर हो रहा है और जाति के साथ यह भी देखा जा रहा है कि वह कितना जिताऊ है। ऐसे में मूल मुद्दे गौण हो जाते हैं। नीतीश कुमार के शासन में कुछ अच्छी चीजें हुई हैं जिनमें सड़कें अच्छी हो गई हैं, बिजली की स्थिति काफी बेहतर हो गई है। इसके साथ ही शराबबंदी भी अच्छी पहल है लेकिन रोजगार की कमी बड़ी समस्या है और शिक्षा, स्वास्थ्य सुविधा, रोजगार के लिए पलायन एक दुखद हकीकत है। लेकिन विपक्ष की ओर से भी विकास का ठोस खाका पेश नहीं किया जा रहा है।
सवाल: बिहार जैसे ग्रामीण पृष्ठभूमि एवं कृषि पर निर्भर रहने वाले राज्य में खेती-किसानी का मुद्दा कितना महत्वपूर्ण है?
जवाब: बिहार के 96.5 फ़ीसदी किसान छोटे और मध्यम जोत वाले हैं। इसके साथ ही काफी संख्या में बटाईदार और कृषि आधारित श्रमिक हैं। इनमें से अनेक किसान ऐसे हैं जो न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) वाली फसल नहीं उगाते, लेकिन जो उगाते हैं, उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिल पाता है। बाढ़ और सूखा दोनों ही आजादी के बाद से बड़ी समस्या बने हुए हैं। लेकिन विपक्षी पार्टियां ऐसे किसानों को यह बात ठीक से नहीं समझा पाई हैं। अगर विपक्षी दल इस बात को समझा पाएं तो राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को नुकसान हो सकता है।
सवाल: उपेंद्र कुशवाहा, असदुद्दीन ओवैसी सहित छह दलों का गठबंधन क्या चुनाव में विकल्प दे पाएगा? लोजपा के राजग से अलग होने का कितना प्रभाव पड़ेगा?
जवाब: पिछले उपचुनाव में भले ही असदुद्दीन ओवैसी का उम्मीदवार जीत गया था लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी बुरी तरह से नाकाम रही। बिहार में अल्पसंख्यक वोट भाजपा के विरोध के तौर पर लामबंद होता है। ऐसे में अल्पसंख्यकों का वोट सीमांचल के कुछ इलाकों में तो ओवैसी के साथ जा सकता है, लेकिन ये पारंपरिक रूप से भाजपा के खिलाफ मजबूत उम्मीदवार के पक्ष में ही रहेंगे। उपेंद्र कुशवाहा की राष्ट्रीय लोक समता पार्टी का जनाधार भी गिनती की कुछ सीटों पर ही है। जहां तक चिराग पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी के राजग से अलग होने की बात है तो वह कुछ सीटों पर त्रिकोणीय मुकाबला बनाने का प्रयास करेगी जिससे भाजपा को कुछ फायदा हो सकता है।