मौन क्रांति

सरकारों को चाहिए कि वे इन योजनाओं में अधिकाधिक छात्राओं को शामिल करें

मौन क्रांति

जब बेटियों को साइकिल चलाने का मौका मिलेगा तो उनके लिए प्रगति के द्वार खुलते जाएंगे

देश के ग्रामीण क्षेत्रों में साइकिल से स्कूल जाने वाले बच्चों की संख्या में बढ़ोतरी होना उत्साहजनक है। इसमें भी विशेष सराहनीय बात यह है कि साइकिल चलाने में छात्राएं बढ़-चढ़कर भाग ले रही हैं। एक शोध में इसे ‘मौन क्रांति’ कहा गया है, जो बिल्कुल उचित है। छात्राओं द्वारा साइकिल चलाकर स्कूल जाना अपनेआप में एक बड़ी क्रांति है, जो कई संदेश भी देती है। 

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पहला संदेश यह कि छात्राओं की शिक्षा तक पहुंच ज्यादा आसान हुई है। समाज इस बात को समझ चुका है कि शिक्षा बेटा और बेटी, दोनों के लिए जरूरी है। दूसरा संदेश यह कि साइकिल ने छात्राओं को सशक्त किया है। प्राय: ग्रामीण क्षेत्रों में कई रूढ़ियां प्रचलित होती हैं। आज भी कई इलाकों में महिलाओं को वाहन चलाते देखना अचंभे से कम नहीं माना जाता। ऐसे में साइकिल आजादी का प्रतीक बन गई है। तीसरा संदेश यह कि साइकिल से शुरू हुआ यह सफर भविष्य में महिलाओं को और सशक्त करेगा। 

आज जो छात्राएं साइकिल चलाकर स्कूल जा रही हैं, वहां विज्ञान की पुस्तक में अंतरिक्ष और उपग्रहों के बारे में पढ़ रही हैं, भविष्य में उन्हीं में से इसरो जैसे संस्थान में वैज्ञानिक बनेंगी। उनकी कहानियां अन्य छात्र-छात्राओं को प्रेरित करेंगी। इसलिए गांव की गलियों से शुरू हुई इस ‘मौन क्रांति’ का भविष्य उज्ज्वल नजर आता है।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली और नरसी मोनजी इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज के शोधकर्ताओं का यह कहना कि 'उन्हें इस बात के भी पुख्ता सबूत मिले हैं कि साइकिल वितरण योजनाओं (बीडीएस) ने उन राज्यों में साइकिल चलाने को बढ़ावा देने में मदद की है, जहां इन्हें लागू किया गया और इसकी सबसे बड़ी लाभार्थी ग्रामीण लड़कियां हैं', भी उक्त निष्कर्ष पर मुहर लगाता है।
 
सरकारों को चाहिए कि वे इन योजनाओं में अधिकाधिक छात्राओं को शामिल करें। जब बेटियों को साइकिल चलाने का मौका मिलेगा तो उनके लिए प्रगति के द्वार खुलते जाएंगे। साल 2020 में जब कोरोना महामारी फैल रही थी और रोजगार के सिलसिले में ग्रामीण इलाकों से शहरों में जाकर रहने वाले लोगों के पास अपने 'घर' लौटने के लिए साधन बहुत मुश्किल से मिल रहे थे, तब बिहार की एक बेटी ज्योति कुमारी अपने बीमार पिता को साइकिल पर बैठाकर गांव ले आई थी। उसने गुरुग्राम से दरभंगा जिले में स्थित अपने घर तक पहुंचने के लिए लगभग 1,200 किमी का सफर हफ्तेभर में तय कर दिया था। उसकी हिम्मत की देश-दुनिया में बहुत तारीफ हुई थी। 

कोरोना काल बहुत कष्टदायक था, लेकिन उस दौरान ज्योति और उनके पिता के लिए साइकिल बड़ा सहारा बनी। अगर ज्योति को साइकिल चलाना नहीं आता तो गुरुग्राम में उनके लिए मुश्किलें बढ़ सकती थीं, क्योंकि पिता एक हादसे में घायल हो गए थे और जब वे मकान किराया नहीं दे सके तो उन्हें घर से चले जाने के लिए कह दिया गया था। 

इसी तरह छत्तीसगढ़ के बस्तर में विजयलक्ष्मी अरोड़ा ने 80 साल से ज्यादा उम्र के बावजूद नियमित साइकिल चलाकर लोगों को सेहत के लिए जागरूक किया था। साइकिल चलाना एक ऐसा व्यायाम है, जो कई बीमारियों को दूर रखता है। ‘जर्नल ऑफ ट्रांसपोर्ट जियोग्राफी’ में प्रकाशित शोध इस बात की पुष्टि करता है कि अधिकतर राज्यों में लड़के और लड़कियों के बीच साइकिल चलाने की हिस्सेदारी में वृद्धि हुई है, जिसमें लड़कियों के बीच अधिक वृद्धि हुई है। 

लड़कियों के बीच साइकिल चलाने में सबसे ज्यादा वृद्धि बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में देखी गई, जहां यह स्तर आठ गुना बढ़ा हुआ पाया गया। यह बताता है कि साइकिल की वजह से बेटियों के आत्मविश्वास में बढ़ोतरी हो रही है। इससे लैंगिक समानता को भी बढ़ावा मिला है। शिक्षा और आत्मविश्वास की यह साइकिल चलती रहे, प्रगति के पथ पर आगे बढ़ती रहे।

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