
शिक्षा: एक मौलिक अधिकार
मुख्य न्यायाधीश प्रसन्ना बी वराले और न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित की पीठ ने टिप्पणी की ...
'शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, लेकिन सरकार सरकारी स्कूलों में सुविधाएं मुहैया कराने में विफल रही'
सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के संबंध में कर्नाटक उच्च न्यायालय की टिप्पणी सभी राज्य सरकारों को आईना दिखाती है। जिन संस्थानों पर हमारे देश के भावी कर्णधार तैयार करने की जिम्मेदारी है, अगर वे बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित हैं तो भविष्य कैसा होगा?
मुख्य न्यायाधीश प्रसन्ना बी वराले और न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित की पीठ की यह टिप्पणी कि 'क्या शिक्षा सिर्फ विशेषाधिकार वाले बच्चों के लिए आरक्षित है', पढ़ने / सुनने में कड़वी लग सकती है, लेकिन यही सवाल वर्षों से कई परिवार सरकारों से पूछना चाहते हैं। आज स्थिति यह आ पहुंची है कि अगर कोई परिवार आर्थिक दृष्टि से थोड़ा-सा भी सक्षम है तो अपने बच्चे के लिए निजी स्कूल को प्राथमिकता देना चाहेगा।
न्यायालय के इन शब्दों में उन परिवारों की पीड़ा भी छिपी हुई है- 'शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, लेकिन सरकार सरकारी स्कूलों में सुविधाएं मुहैया कराने में विफल रही, जिसकी वजह से गरीब लोगों को अपने बच्चे निजी स्कूलों में भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा। इससे अप्रत्यक्ष रूप से निजी स्कूलों को फायदा पहुंच रहा है।'
भारत की स्वतंत्रता के बाद केंद्र और समस्त राज्य सरकारों को सरकारी स्कूलों में सुधार एवं बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने पर विशेष जोर देना चाहिए था। अगर यह काम गंभीरता से किया जाता तो दो-तीन दशकों में स्थिति बहुत बेहतर हो सकती थी। जब सात दशक बाद भी सोशल मीडिया पर ऐसे वीडियो / चित्र वायरल होते हैं, जिनमें सरकारी स्कूल पेयजल, शौचालय, बैठने के लिए बेहतर व्यवस्था तक के लिए तरसते नजर आते हैं तो सवाल उठने स्वाभाविक हैं। सरकारी स्कूलों में कई बार आवारा पशु घुस आने की खबरें छप चुकी हैं।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना है कि सरकारी स्कूलों में शौचालयों की कमी और पेयजल सुविधाओं से संबंधित खामियां वर्ष 2013 में उसके सामने लाई गई थीं, लेकिन इन कमियों को दूर करने के लिए कोई कार्रवाई नहीं की गई। यही नहीं, अब तक 464 सरकारी स्कूलों में शौचालयों की कमी है और 32 में तो पेयजल सुविधा तक नहीं है! यह तो मीडिया ने मामला उठा दिया, जिसके बाद एक जनहित याचिका दाखिल की गई। अगर मामला नहीं उठाया जाता, याचिका दाखिल नहीं की जाती तो आज इस पर चर्चा भी नहीं होती।
न्यायालय ने उचित कहा, 'क्या राज्य को यह सब बताना हमारा काम है? यह सब कई वर्षों से चला आ रहा है। बजट में स्कूलों और शिक्षा विभाग के लिए कुछ राशि दिखाई जाती है। उस राशि का क्या हुआ?' न्यायालय ने सभी स्कूलों में उपलब्ध कराई जा रहीं बुनियादी सुविधाओं को लेकर सरकार को आठ सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करने का निर्देश दे दिया है। सरकार उसमें क्या कहेगी? इस पर सबकी नजर होगी।
प्राय: सरकारें यह कहकर वाहवाही पाने की कोशिशें करती हैं कि उन्होंने आम लोगों को लाभ देने के लिए इतनी योजनाएं चला रखी हैं, जिनमें मिलने वाली सुविधाएं नि:शुल्क हैं या नाम मात्र की लागत पर मिल रही हैं। निस्संदेह ऐसी कल्याणकारी योजनाएं होनी चाहिएं। सामान्य पृष्ठभूमि और जरूरतमंद तबके से आने वाले लोगों को सहारा देना सरकार की जिम्मेदारी भी है। इसके साथ ही सरकारी स्कूलों की ओर ध्यान देना चाहिए। सरकारें अन्य योजनाओं में मिली सफलता को तो जोर-शोर से गिनाती हैं, लेकिन यह बताने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं लेतीं कि सरकारी स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए क्या किया और अभी क्या-क्या करना बाकी है?
संभवत: इसलिए, क्योंकि इसमें चुनावी फायदा नहीं है या कम है! सरकारें सर्वांगीण विकास का वादा करती हैं तो याद रखें कि इसके लिए सरकारी स्कूलों की दशा में सुधार करना अनिवार्य है। नागरिकों को भी चाहिए कि वे सरकारों से इस संबंध में सवाल करें। अगर इसकी उपेक्षा करेंगे तो भविष्य में सबको बड़ी कीमत चुकानी होगी।
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