हिमायत की मंशा
निस्संदेह पाकिस्तान में इतनी क्षमता नहीं है कि वह प्रत्यक्ष रूप से भारत को युद्ध के लिए ललकार सके, लेकिन वह अमेरिकी सहायता का दुरुपयोग करेगा
आतंकवाद के मामले में अमेरिका का दोहरा रवैया किसी से छिपा नहीं है। जिस पाकिस्तान के पाले हुए आतंकवादी दुनियाभर में उपद्रव मचा रहे हैं, अमेरिका उसकी हिमायत करता रहा है। अब उसने पाकिस्तान को दिए एफ-16 लड़ाकू विमानों के रखरखाव के लिए विशेष सस्टेनमेन्ट प्रोग्राम को हरी झंडी दिखाकर आतंकवाद के अंतरराष्ट्रीय आका की पैरवी की है। उसकी डिफेन्स सिक्योरिटी कोऑपरेशन एजेंसी (डीएससीए) चाहे अपने बयान की चाशनी से यह साबित करने की कोशिश करती रहे कि इससे उन एफ-16 विमानों की मरम्मत की जाएगी और जरूरी उपकरण दिए जाएंगे, जो पहले से पाकिस्तान के पास हैं।
बयान का सबसे ज्यादा हास्यास्पद पहलू यह है कि ‘इससे आतंकवाद के खिलाफ अभियान में पाकिस्तान को मदद मिलेगी’! जो देश खुद आतंकवाद को पालकर परवान चढ़ाता है, वह उसके खिलाफ कैसे लड़ेगा? यह तथ्य अमेरिका भी जानता है कि दक्षिण एशिया में आतंकवाद का जहर किसने घोला और कौन आज तक आतंकवादियों के कैंप चला रहा है। अगर यह सब ज्ञात होने पर भी अमेरिका पाकिस्तान को सहायता दे रहा है तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। अमेरिका का यह कहना भी सत्य नहीं है कि इससे क्षेत्र के सैन्य संतुलन पर असर नहीं पड़ेगा।निस्संदेह पाकिस्तान में इतनी क्षमता नहीं है कि वह प्रत्यक्ष रूप से भारत को युद्ध के लिए ललकार सके, लेकिन वह अमेरिकी सहायता का दुरुपयोग करेगा। जब पुलवामा में आतंकवादी हमला हुआ तो उसके जवाब में भारतीय वायुसेना द्वारा बालाकोट में की गई ज़बरदस्त एयर स्ट्राइक से पाक के होश फाख्ता हो गए थे। उसने दोबारा दुस्साहस दिखाया तो भारतीय वायुसेना ने फिर पलटवार किया था। फिर तो पूरे विश्व ने देखा कि किस तरह विंग कमांडर अभिनंदन ने मिग-21 बाइसन से पाक का एफ-16 धराशायी कर दिया, जो उसे अमेरिका की कृपा से प्राप्त हुआ था। भारत ने एफ-16 के अवशेष सार्वजनिक कर दिए थे, जिससे अमेरिका-पाक के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी थीं।
वास्तव में अमेरिका चाहता है कि भारत के सिर पर पाकिस्तान के रूप में आतंकवाद का संकट मंडराता रहे। वह बीच-बीच में आतंकवाद की निंदा कर देता है, लेकिन जब कभी पाक संकट में फंसता है, उसकी मदद करने दौड़ा चला आता है। फिर चाहे वह आर्थिक सहायता हो या सैन्य सहायता अथवा तकनीकी सहायता। इकहत्तर के युद्ध में भी अमेरिका का यही रवैया था। भारत जानता है कि पाक को मिली सैन्य सहायता किसके खिलाफ इस्तेमाल होगी। इस स्थिति में अमेरिकी अधिकारी डोनाल्ड लू के भारत दौरे के समय विदेश मंत्रालय का इस पर आपत्ति जताना उचित ही था।
भारत द्वारा चिंता जताकर यह कहना कि ‘पाकिस्तान इस तकनीकी सहायता का इस्तेमाल आतंकवाद विरोधी कार्रवाई में नहीं, बल्कि उसके खिलाफ करेगा’ - एक सर्वविदित तथ्य है। स्पष्ट रूप से इससे भारत की सुरक्षा पर असर पड़ सकता है। इतने महत्वपूर्ण फैसले पर अमल करने से पहले अमेरिका को भारत के साथ चर्चा जरूर करनी चाहिए थी। अमेरिका भलीभांति जानता है कि पाकिस्तान अफगान तालिबान और हक्कानी नेटवर्क आदि पर कोई लगाम नहीं लगा पाया। वह इसके बदले करोड़ों डॉलर पाता रहा। आज भी उसकी सरजमीं पर आतंकवादी कैंप चल रहे हैं, जिनके निशाने पर भारत की जनता है।
भारत को अमेरिका के इस दोहरे रवैए को चुनौती के रूप में लेते हुए रक्षा क्षेत्र के लिए स्वदेशी तकनीकी विकसित करने पर जोर देना चाहिए। भारत को बेहतर हथियारों के निर्माण में अनुसंधान को बढ़ावा देना चाहिए और सेना को अत्याधुनिक अस्त्र-शस्त्रों से लैस करना चाहिए। अपनी सीमाओं और नागरिकों की रक्षा के लिए आत्मनिर्भर होना ही होगा।