आक्सीजन सिलेंडर, अस्पताल में आईसीयू बेड दिलाने में कोई रुतबा, पहचान या दोस्ती काम नहीं आ रही

आक्सीजन सिलेंडर, अस्पताल में आईसीयू बेड दिलाने में कोई रुतबा, पहचान या दोस्ती काम नहीं आ रही
श्रीकांत पाराशर
दक्षिण भारत राष्ट्रमत
जिन संक्रमितों को डाक्टर घर पर क्वारंटाइन रहने की सलाह दे देते हैं वे जरूर थोड़ी राहत महसूस करते हैं। उन्हें लगता है अस्पताल जाने से तो बचे। जान बची, लाखों पाये। क्योंकि एक तो अस्पताल में बेड मिलना ही किसी युद्ध में फतह हासिल करने से कम काम नहीं है। और बेड मिल भी जाए तो अस्पताल में कैसे हालात में रहना पड़ता है, यह पूरी तरह से आश्वस्त करने जैसा भी नहीं है। मजबूरी यह है कि जिस मरीज की आक्सीजन का लेवल बार बार ज्यादा ऊपर नीचे हो रहा हो, सांस लेने में दिक्कत हो रही हो उसे आईसीयू बेड की सलाह दी जाती है और उसे भर्ती होना ही पड़ता है। उसके लिए घर वालों को भागदौड़ करनी पड़ती है।
इसके बाद उस मरीज की देखभाल करने वाले, चाहे वह पिता हो या बेटा, पति हो या पत्नी, बहन हो या बेटी, उसके लिए दर दर भटकने का समय आ जाता है। रोगी का यह अटेंडेंट बेड के लिए अपने सारे सोर्स खंगाल लेता है परंतु सब अपने आपको बेबस बताते हैं। किसी भी अस्पताल में कड़ी मशक्कत के बाद भी बेड नहीं मिलता। मजे की बात यह भी है कि कुछ लोग तो साफ साफ भी नहीं कहते कि बेड दिलाना या आक्सीजन दिलाना उनके वश की बात है या नहीं, वे समय व्यतीत करते रहते हैं। फोन कर रहा हूं, कोशिश कर रहा हूं, शाम तक बताता हूं, काफी मारामारी चल रही है, ऐसे वाक्य आजकल कामन हो गए हैं, ऐसा मान लीजिए। वे यह नहीं समझते कि मारामारी नहीं होती और सब आसानी से हो रहा होता तो कोई क्यों आपको परेशान करता, खुद नहीं कर लेता?
ऐसा कतई नहीं कि सब लोग एक जैसे हैं। बहुत से लोग ईमानदार प्रयास करते हैं। वे कुछ का काम कराने में सफल होते हैं तो कुछ से क्षमायाचना भी कर लेते हैं कि काम नहीं कर पाए। लेकिन बहुत से छुटभैया नेता, कुछेक संस्थाओं के बड़बोले पदाधिकारी, कुछ अपने आपको प्रभावशाली साबित करने में दिनरात जुटे स्वयंभू सामाजिक नेता इस कोरोना काल में अपनी चवन्नी नहीं चला पा रहे हैं। क्योंकि ये जिनके बूते पर तुर्रमखां होने का दम भरते हैं और जिन्हें समाज के कार्यक्रमों में बुला बुला कर भव्य-दिव्य सम्मान करवाते हैं वे नेता, वे प्रशासनिक अधिकारी इनका फोन ही नहीं उठाते।
कुछ अस्पतालों में प्रमुख पदों का दायित्व निभा रहे लोग समाज के किसी न किसी तरह से प्रभावी हैं, ऐसे लोगों को थोड़ा बहुत आब्लाइज भी करते हैं परंतु दूसरे कुछ अस्पतालों के पदाधिकारियों के तो पैर ही जमीन पर नहीं टिक रहे। कोरोना ने अचानक उनकी मानो इम्पोर्टेंस बढा दी। वे तो सीधे मुंह बात ही नहीं करते। उनसे एक बेड मांग लो तो ऐसे रिएक्ट करते हैं जैसे उनकी तिजोरी की चाबी मांग ली हो। कुछ तो फोन उठाने की भी जरूरत नहीं समझते। कुछ लोग फोन उठाते भी हैं तो मदद करते कुछ नहीं।
यथार्थ यह है कि यह बुरा दौर भी चला जाएगा लेकिन इस दौर ने जो पाठ पढाए हैं, उन्हें गंभीरता से लिया तो वे जिंदगी में काम आएंगे। कोरोना की जब पहली लहर पिछले साल आई थी तब लोगों ने बहुत संकल्प लिए थे, सीख ली थी। अपने मन की बातें दूसरों के सामने बेबाक रूप से रखी थीं। उस पहले अध्याय से बहुत कुछ सीखकर आगे बढने के वादे किए जा रहे थे परंतु मनुष्य स्वभाव बड़ा अजीब है। संकट टलते ही वादे, संकल्प सब हवा हवाई हो जाते हैं। वही हुआ भी। कुछ ही महिनों में पुराने ढर्रे पर जीवन की गाड़ी सरपट दौड़ पड़ी।
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक से बढिया एक स्लोगन के साथ समय समय पर जनता को आगाह करते रहे परंतु जो आर्थिक रूप से नुकसान पिछले बरस हुआ, लोग उसकी भरपाई दुगुने जोश से इस वर्ष करने में ऐसे लगे कि कोरोना फिर से यह कहते हुए लौट आया कि मैं अभी गया नहीं हूं। अब दूसरा अध्याय हमारे सामने है। यह हमारी समझ के लिए काफी है या फिर एक और पाठ पढना पसंद करेंगे, यह हमें ही तय करना है।
इस समय के दोनों पहलुओं पर गौर करना है। पहला, हमारे सिस्टम में बहुत धांधलियां हैं जिनमें से एक गंभीर मामला सांसद तेजस्वी सूर्या ने कल उजागर किया। बीबीएमपी से जुड़कर एजेंसियों से आए तकनीकी कर्मी किस तरह भ्रष्टाचार और बेड अलाटमेंट धांधली में लिप्त पाए गए, यह सामने आया। यह गंभीर मामला है। सांसद की सख्ती और समझदारी ने एक साजिश का भंडाफोड़ किया। इसी प्रकार दूसरा पहलू सुखद अनुभूति वाला है कि… बहुत सारे लोग सोशल मीडिया के माध्यम से जरूरतमंदों को अपने अपने ढंग से सहयोग कर रहे हैं…कोई बेड दिला रहा है, कोई आक्सीजन सिलेंडर का इंतजाम कर रहा है। कोई प्लाज्मा दिला रहा है तो कोई अन्य प्रकार की मदद कर रहा है। ऐसे बहुत सारे वाट्सएप ग्रुप काम कर रहे हैं। उन सबको न तो प्रचार मिल पाता है और न ही ये सब प्रचार के लिए लालायित हैं।
हालांकि जो भी सेवा करते हैं उनको समाज में रिकोग्निशन और प्रचार मिलना चाहिए जिससे दूसरे लोग भी प्रेरित हो सकें परंतु ऐसा होता नहीं है। लेकिन उनकी अहर्निश सेवाओं का लेखाजोखा कोई तो रख रहा है और वही सर्वशक्तिमान है, वही सबसे बड़ा अकाउंट है। अंततः वही बैलेंस शीट काम आती है। बाकी सब दिखावटी रुतबों की कभी भी वैसी हालत हो सकती है जैसी कोरोना ने अभी करके बता दी है। आज हालात ऐसे हैं कि एक प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री अपने पिता को नहीं बचा पाता, बड़े बड़े पत्रकार उचित इलाज के अभाव में जान गंवा बैठते हैं। बड़े बड़े धनाढ्य लोग कुछ समय के लिए देश छोड़कर भाग रहे हैं। जो लोग एक फोन काल पर किसी का भी काम कराने की ताकत रखते हैं उनका फोन ही कोई नहीं उठा रहा।
बहरहाल, घबराने से कुछ हासिल नहीं होगा। सबको हिम्मत से परिस्थितियों का सामना करना होगा। इसके साथ ही इस बार पूर्व में हुई गलतियों को न दोहराने का दृढ संकल्प लेना होगा, सीख लेनी होगी। अपनी लाइफ स्टाइल बदलनी होगी। अपने पराए के फर्क को समझना होगा। जो तरह तरह के मुखोटे पहन रखे हैं उनको उतारकर सहज जीवन जीने की ओर बढना होगा।
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