ममता को हार की आशंका?
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ममता को हार की आशंका?
चुनाव आयोग ने पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, असम और पुड्डुचेरी में विधानसभा चुनाव की तिथियों की घोषणा कर दी है। लोकतंत्र के इस उत्सव में राजनेताओं को जनहित के मुद्दे उठाने चाहिएं। वे जनता को बताएं कि उन्हें किस खूबी की वजह से चुना जाए? जनता भी बहुत सावधानी से ईमानदार, सेवाभावी और जनहित, देशहित को प्राथमिकता देने वाले उम्मीदवारों को चुने। करोड़ों मतदाताओं के लिए चुनाव संबंधी इंतजाम करना हंसी-खेल नहीं होता। इसके लिए मुख्य चुनाव आयुक्त से लेकर गांव-देहात तक कर्मचारी जुटते हैं। एक लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता है, तब जाकर तस्वीर साफ होती है कि इस बार जनता ने किसे शासन की बागडोर सौंपी है?
अगर चुनाव प्रक्रिया से जुड़ीं सभी तारीखों पर गौर करें तो इसमें कुछ भी असामान्य नजर नहीं आता है। वहीं, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी इस पर सवाल उठा रही हैं। उनकी शिकायत है कि राज्य में विधानसभा चुनाव आठ चरणों में क्यों कराए जा रहे हैं? दीदी को संदेह है कि यह सब भाजपा को फायदा पहुंचाने के लिए हो रहा है। सिर्फ चुनाव चरणों की संख्या के आधार पर यह दावा करना कि इससे भाजपा को फायदा होगा, बहुत ही हास्यास्पद है। क्या ममता बनर्जी आठ के अंक को अशुभ समझती हैं? क्या दीदी को ऐसा लगता है कि अगर पूरा चुनाव एक ही चरण में कराया जाता तो तृणमूल कांग्रेस को छप्परफाड़ बहुमत मिलता?
संभवत: तब ममता यह आरोप लगातीं कि पूरा चुनाव जल्दी निपटाया जा रहा है ताकि हमें प्रचार का मौका ही न मिले और भाजपा बाजी मार ले जाए! देश में चुनाव आयोग की विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर किसी को संदेह नहीं होना चाहिए। अगर बंगाल में आठ चरणों के रूप में भाजपा को ज्यादा मौका मिल रहा है तो वही मौका तृणमूल कांग्रेस को भी मिल रहा है। वही मौका कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों को भी दिया जा रहा है। प्रचार के लिए किसी को कम, किसी को ज्यादा समय तो मिल नहीं रहा। फिर एक ही पार्टी को फायदा पहुंचाने का सवाल कहां से आया? क्या ममता बनर्जी को ऐसा लगता है कि ये तिथियां उन्हें हराने के लिए ही घोषित की गई हैं?
अगर ऐसा है तो उनके राजनीतिक कौशल पर सवाल उठना स्वाभाविक है, चूंकि उन्होंने अब तक संसद से लेकर ग्राम पंचायत तक कितने ही चुनाव देखे हैं, लड़े हैं; हार-जीत जनता का वोट तय करता है, कैलेंडर की तारीख नहीं। ममता बनर्जी के इस बयान के बाद यह चर्चा शुरू हो गई है कि उन्हें तृणमूल के प्रदर्शन पर भरोसा नहीं रहा। एक तो बंगाल में भाजपा का जनाधार बढ़ रहा है। पिछले लोकसभा चुनाव में उसके जोरदार प्रदर्शन ने तृणमूल नेताओं के माथे पर पसीना ला दिया है। दीदी की पार्टी में मची भगदड़ ने मुकाबले को और दिलचस्प बना दिया है।
चर्चा तो यह भी है कि तारीखों की घोषणा के दिन ही ममता ने ‘दूसरों’ पर ठीकरा फोड़ना शुरू कर दिया है। अगर उनकी पार्टी हार गई तो उसके बाद ईवीएम पर दोष मढ़ा जाएगा। कुछ पार्टियों का ईवीएम को लेकर रुख बड़ा ही दिलचस्प रहा है। अगर आप राजस्थान विधानसभा चुनाव जीत जाते हैं तो ईवीएम ठीक है, लेकिन कुछ महीने बाद जब लोकसभा चुनाव में इस राज्य से शून्य सीट मिलती है और केंद्र में सरकार नहीं आती तो ईवीएम खराब है! अगर आप अमेठी से हार जाते हैं तो वहां ईवीएम खराब है, लेकिन वायनाड पहुंचते-पहुंचते वह ठीक हो जाती है!
इसी तरह अगर बंगाल चुनाव में नतीजे पक्ष में आए तो ईवीएम ठीक होगी। अगर नतीजे मन मुताबिक नहीं आए तो ईवीएम खराब घोषित करने की पूरी संभावना है! जब कोई वरिष्ठ नेता ऐसी दलील देता है तो प्रबुद्ध मतदाताओं द्वारा उसकी समझ पर सवाल उठाया जाना स्वाभाविक है। चुनाव देश का, देशवासियों के भविष्य का मार्ग निर्धारित करते हैं। यह कोई चौपड़ का खेल नहीं, जहां पासों पर लिखी संख्या देखकर नेता यह शिकायत करने लगें कि पूरी मशीनरी हमें हराने और दूसरों को जिताने में लगी है।
ममता बनर्जी यह न भूलें कि बंगाल का मतदाता उनके बयान ध्यान से सुन रहा है। अगर उन्हें अपनी पार्टी के प्रदर्शन पर संदेह है तो संगठन को मजबूत करें, लोगों तक प्रभावी ढंग से अपनी बात पहुंचाएं, विकास कार्य गिनाएं, पर यह न कहें कि चुनाव के चरण उन्हें हराने के लिए निर्धारित किए गए हैं। बंगाल में वही पार्टी जीतेगी, जिसे जनता वोट देगी। राजनेताओं को भ्रम फैलाने से बचना चाहिए।
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