आरक्षण की बढ़ती उलझन

आरक्षण की बढ़ती उलझन

तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव ने एलान किया है कि आरक्षण का प्रतिशत तय करने का हक राज्यों को दिलवाने के लिए वह दिल्ली में धरने पर बैठेंगे। इसका तात्कालिक संदर्भ यह है कि केसीआर अपने राज्य में आदिवासियों और ओबीसी श्रेणी में मुसलमानों के लिए आरक्षण का प्रतिशत ब़ढाना चाहते हैं। उनकी चले तो तेलंगाना में कुल आरक्षण ६२ फीसदी हो जाए। जाहिर है, यह सुप्रीम कोर्ट की लगाई ५० फीसदी की सीमा का उल्लंघन होगा। अतः केसीआर ने मांग उठाई है कि किस राज्य में कितना आरक्षण हो, यह तय करने का हक प्रदेश सरकारों को दिया जाए। आरक्षण ब़ढाने के लिए वे जो बिल पास कराएं, उन्हें संविधान की नौवीं अनुसूची में डाला जाए, ताकि वह अदालती समीक्षा के दायरे से बाहर हो जाए। इससे पहले उन्होंने केंद्र से मांग की थी कि धर्म के आधार पर आरक्षण संभव नहीं होने के मद्देनजर उन्हें बीसी-ई की श्रेणी में शामिल कर कितने प्रतिशत आरक्षण देना चाहिए, इस पर निर्णय राज्य मंत्रिमंडल में लिया जाएगा और उसी के अनुरूप सदन में बिल पेश होगा और बाद में उसे केंद्र सरकार के पास भेजकर राष्ट्रपति की मंजूरी की अपील की जाएगी। जो केसीआर करना चाहते हैं, वही राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात और कर्नाटक की सरकारें भी करना चाहती हैं। इन सभी प्रदेशों में विभिन्न जातीय या भाषाई समूह आरक्षण मांग रहे हैं, लेकिन पचास फीसदी की सीमा से राज्य सरकारों के हाथ बंधे हुए हैँ। इस बीच केंद्र ने राष्ट्रीय पिछ़डा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने के बहाने किसी जाति या वर्ग का पिछ़डापन तय करने के मामले में राज्यों के हाथ और बांधने का इरादा दिखाया है। भाजपा की राज्य सरकारें इसके खिलाफ खुलकर नहीं जा सकतीं।बहरहाल, माना जा सकता है कि इस मुद्दे पर उनकी सहानुभूति केसीआर से होगी। इसी बीच नीतीश कुमार ने निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग फिर से उठाई है। तो कुल सूरत यह उभरती है कि देश आरक्षण के विमर्श में और उलझता जा रहा है। जब वर्ष २०१४ में नरेंद्री मोदी सरकार सत्ता में आई, तो उम्मीद की गई थी कि देश विकास के ऐसे रास्ते पर चलेगा, जिसमें जातिगत या सामुदायिक पहचान की राजनीति अप्रासंगिक हो जाएगी। मगर अब बात उलटी दिशा में है। क्यों? इसका कारण यह है कि खुली अर्थव्यवस्था से समृद्धि और रोजगार के अवसर पैदा करने की पहल आरंभ नहीं की गई। जब केक छोटा हो जाए, तो उसमें अपना हिस्सा पाने के लिए तलवारें निकल प़डना लाजिमी है। केक ब़डा हो, तो लोगों का मानस खुद ब़डा हो जाता है। दूसरी ओर, केक का आकार ब़डा करने के बजाय सरकारें छोटे केक का लालच दिखाकर अपना सियासी उल्लू सीधा करने में जुटी हुई हैं। दूसरी तरफ दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि लोग आरक्षण के लालच में आ रहे हैं।

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