महानगरों की थाली तक पहुंचाया पहाड़ी जायका

महानगरों की थाली तक पहुंचाया पहाड़ी जायका

महानगरों की थाली तक पहुंचाया पहाड़ी जायका

उत्तराखंड के परंपरागत मसाले तैयार करती हुईं शशि रतूड़ी।

.. राजीव शर्मा ..

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देहरादून/दक्षिण भारत। कोरोना काल में लॉकडाउन के दौरान हमारी ज़िंदगी की रफ्तार एक बार तो थम-सी गई थी। इस दौरान अलग-अलग स्तर पर दिक्कतों का सामना करना पड़ा, वहीं हमारे प्राचीन खानपान, आध्यात्मिक कथाओं और शिक्षाओं ने एक बार फिर दस्तक दी, जिन्हें हम शहरीकरण की भागदौड़ में भूल गए थे।

इस अवधि में परंपरागत मसालों और व्यंजनों का स्वाद फिर जुबां पर चढ़ा और दूरदर्शन पर रामायण ने लोकप्रियता के नए कीर्तिमान बनाए। हमें अपने गांवों की याद आई। बहुत लोग गांव भी गए। जो वहां नहीं जा सके, उन्होंने फोन पर अपनों के हालचाल जाने।

हर राज्य के लोगों की तरह उत्तराखंड के भी बहुत लोग शिक्षा और रोजगार के लिए अन्य राज्यों में आबाद हैं। जब उन्हें विशुद्ध पहाड़ी मसालों से बने खानपान की याद आई तो यह कमी उत्तराखंड के देहरादून की निवासी एक महिला ने सोशल मीडिया के जरिए पूरी की।

इनका नाम है शशि बहुगुणा रतूड़ी, जो टिहरी-गढ़वाल इलाके में परंपरागत पहाड़ी मसाले तैयार कर कई महिलाओं के लिए रोजगार का सृजन कर रही हैं। उनके इस काम में सोशल मीडिया बहुत मददगार साबित हो रहा है। वे मुख्यत: पहाड़ी नमक तैयार करती हैं।

महानगरों की थाली तक पहुंचाया पहाड़ी जायका
पिस्यूं लूण की महक देश-विदेश तक पहुंच गई है।

क्या है पिस्यूं लूण?
यह एक खास तरह का नमक होता है जो स्वाद के अलावा स्वास्थ्य के लिए बहुत लाभदायक होता है। इसे विभिन्न मसाले डालकर सिल-बट्टे पर तैयार किया जाता है। यह नमक उत्तराखंड में पिस्यूं लूण के नाम से जाना जाता है।

पिस्यूं लूण तैयार करने में करीब एक दर्जन महिलाएं जुटी हुई हैं। इस पहल का नाम है ‘नमकवाली’। लॉकडाउन में जब इंटरनेट की खपत बढ़ी तो इसके जरिए देशभर में लोगों को पहाड़ी नमक और मसालों के महत्व के बारे में पता चला।

आमतौर पर अब तक लोगों का यही मानना था कि पहाड़ सिर्फ पर्यटन के लिए जाने जाते हैं लेकिन यह इन स्थानों का अधूरा परिचय है। पहाड़ प्राकृतिक वनस्पतियों व मसालों के भंडार भी हैं जो स्वाद के अलावा प्रतिरोधक क्षमता के अच्छे स्रोत हैं।

ग्रामीण रसोई की महक
शशि रतूड़ी को जब उत्तराखंड या अन्य राज्यों में स्थित गांव-शहरों से ऑर्डर मिलता है तो उनकी टीम पिस्यूं लूण तैयार करने में जुट जाती है। इसके बाद लूण की पैकिंग होती है और उसे कूरियर के जरिए निर्धारित पते पर भेज दिया जाता है।

इस तरह उत्तराखंड में परंपरागत सिल-बट्टे पर तैयार हुआ पिस्यूं लूण चंडीगढ़, अमृतसर, जयपुर, फरीदाबाद, दिल्ली, कोलकाता, मुंबई से लेकर चेन्नई की थालियों तक पहुंच चुका है। इससे न केवल परंपरागत मसालों को नई पहचान मिल रही है, बल्कि महिलाओं को रोजगार भी मिल रहा है।

मां से सीखा हुनर
शशि बताती हैं कि उन्होंने नमक निर्माण की यह प्रक्रिया अपनी मां से सीखी थी। इसमें करीब दर्जनभर मसाले डाले जाते हैं, फिर सिल-बट्टे पर बहुत बारीक पीसा जाता है, तब पिस्यूं लूण तैयार होता है। इन सबके लिए बहुत मेहनत करनी होती है।

शशि ने बताया कि वे ऑर्डर मिलने के बाद ही पिस्यूं लूण तैयार करती हैं, क्योंकि मसालों की ताजगी रहने से इसका असल स्वाद बरकरार रहता है। हर महीने करीब 40 किलो पिस्यूं लूण बिक जाता है। इस नमक में खास अनुपात में पहाड़ी जड़ी-बूटियों का मिश्रण डाला जाता है। इसे सब्जी, सलाद और फलों के साथ खाया जा सकता है।

महानगरों की थाली तक पहुंचाया पहाड़ी जायका
परंपरागत सिल-बट्टे से तैयार होते हैं शुद्ध मसाले।

हमारी विरासत से बनेगा ‘आत्मनिर्भर भारत’
पिस्यूं लूण को देशभर में लोगों द्वारा पसंद किए जाने के बाद ‘नमकवाली’ ने पहाड़ी हल्दी, शहद, अन्य मसालों और पिंगली पिठाई को उपलब्ध कराना शुरू कर दिया है। शशि बताती हैं कि वे 1982 से ही सामाजिक कार्यों में सक्रिय हैं। इस दौरान उन्होंने पर्यावरण संरक्षण, उत्तराखंड की लोकसंस्कृति और महिलाओं से संंबंधित मुद्दे उठाए। वे परंपरागत विवाह पद्धति को बढ़ावा दे रही हैं।

उनकी इस पहल से प्रभावित होकर कई विदेशी जोड़ों ने भी वैदिक रीति से विवाह किया। इससे स्थानीय कलाओं को बढ़ावा मिला और स्थानीय लोगों के लिए रोजगार के अवसर पैदा हुए। शशि कहती हैं कि हमारा देश खानपान, कला, संस्कृति, विरासत और विविधता से इतना समृद्ध है कि इनके माध्यम से रोजगार के अनेक अवसरों का सृजन करते हुए ‘आत्मनिर्भर भारत’ का निर्माण किया जा सकता है।

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