जीना ही नहीं आया …
जीना ही नहीं आया …
श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत
* आपाधापी में सोचने का भी समय नहीं
हम सबकी स्थिति भी थोड़ी थोड़ी उस गिलहरी जैसी ही है। हम एक ढर्रे पर जीवन जीते जा रहे हैं। जब बरसों बीत जाते हैं तब महसूस होता है कि जीवन तो पूरा निकल गया, और हमने तो ढंग से जीया भी नहीं। तब हम अफसोस करते हैं कि जीवन जीना ही नहीं आया। यह बात भी सब लोग महसूस नहीं कर पाते हैं क्योंकि जीवन की आपाधापी में इतना महसूस करने का भी यत्न नहीं होता। ऐसा नहीं है कि हर व्यक्ति एक जैसा होता है परंतु बात उन्हीं की, की जाती है जो बहुतायत में होते हैं। हम में से भी अधिकांश लोग लगे हैं वही जीवन जीने में। यह तो भला हो कोरोना वायरस संकट का और इसके कारण लगाए गए पूर्ण लाकडाउन का, कि मनुष्य को सब कामधाम छोड़कर चौबीसों घंटे घर की चारदीवारी में रहना पड़ा।
ऐसे में मनुष्य को यह अहसास हुआ कि अब तक वह केवल और केवल पैसे के पीछे दौड़ रहा था। बहुत सारे लोगों ने इस संबंध में अपने मन के विचार सार्वजनिक रूप से साझा भी किए, उनका सार यही था कि यदि यह कोरोना संकट नहीं आता तो मनुष्य को कभी पता ही नहीं लगता कि जिस धन के पीछे वह दिन रात एक किए हुए है, कभी ऐसा भी अवसर आ सकता है कि वह धन भी तुच्छ लगने लगे। लोगों ने माना कि वास्तव में धन की पीछे जो दौड़ थी, उसमें बहुत कुछ अच्छा और आवश्यक पीछे छूटता जा रहा था।
लोगों ने इस अद्वितीय अनुभव से संभवतः कुछ सीखा और भविष्य में जीवन को सही तरीके से जीने का संकल्प लिया। यह संकल्प कितना मजबूत है यह तो उनके जीवन में आने वाले बदलाव से उन्हीं को पता लगेगा किंतु यह सच है कि वर्तमान परिस्थितियों ने मनुष्य को बहुत कुछ सोचने के लिए बाध्य अवश्य किया है। मनुष्य इतना तो जान ही गया कि पैसे के पीछे अंधी दौड़ निरर्थक है। उसका कोई मूल्य नहीं है। उससे कहीं अधिक मूल्यवान हमारा परिवार है, हमारा अपना जीवन है, जिसे इस संसार में रहते हुए भी बहुत उत्साह, उमंग और आनंद से जीया जा सकता है। विडंबना यह है कि इसी अमूल्य जीवन को जीने का ढंग ही हमें अब तक नहीं आया। जिन्होंने जीना सीख लिया, उन्होंने तो बाजी मार ली और जो दुविधा में रहे उन्होंने केवल धन संग्रह को ही जीवन मान लिया।
* मनुष्य अपने ढंग से जीना शुरू कर देता है
यदि आप बड़े बड़े दर्शनशास्त्रियों का साहित्य पढेंगे या विद्वान संत महात्माओं के प्रवचन सुनेंगे तो उनका कहना यही होगा कि इस असार संसार में परम ब्रह्म की खोज ही जीवन का सार तत्व है, उस परम तत्व को पहचानना ही जिंदगी का मूल उद्देश्य होना चाहिए। विद्वानों की बातें सच तो होती हैं परंतु गूढ होती हैं, इसलिए सहज ही सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आतीं। समझ में आ भी जाएं तो हम स्वयं न तो समझने का प्रयास ही करते हैं और न ही इतना समय दे पाते हैं कि उनकी गूढ, रहस्यमयी और अनुभव की गई बातें सुनें और पढें। पहुंचे हुए संत महात्मा बताते हैं कि जीवन के उस अमृत को कैसे प्राप्त किया जा सकता है। वे ध्यान, भक्ति, अनुराग, त्याग और भी अनेक विधियां बताते हैं परंतु सांसारिक मनुष्य को लगता है कि यह सब हम जैसे सामान्य लोगों के वश की बात नहीं है।
वह सोचता है कि उस परम तत्व को पाने के लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ेगा या फिर बहुत कुछ गूढ ज्ञान को ग्रहण करना पड़ेगा। इससे वह घबरा जाता है। उसे लगता है कि वह नहीं कर पायेगा, और हथियार डाल देता है। वह जीवन के झंझावातों में इतने हिचकोले खा रहा होता है कि उसे अपना जीवन जीने का ढंग ढूंढने का भी वक्त नहीं मिलता। वह प्रवचनों में सुनता है, किताबों में पढता है कि जीवन शाश्वत नहीं है। जिसने जन्म लिया है उसे मृत्यु को प्राप्त करना ही है। वह स्वयं अनेक लोगों को हमेशा के लिए विदा होते हुए भी देख चुका होता है। वह सोचता है कि यह सब सच है परंतु इसका यह भी तो अर्थ नहीं कि खुद चलाकर तुरंत मृत्यु का इंतजाम कर लिया जाए।जीवन मिला है तो जीने के लिए। फिर वही संत महात्मा यह भी तो कहते हैं कि यह जीवन अमूल्य है। वह बस इतनी सी बात पकड़ लेता है और इस जीवन को जीने का अपने ढंग से प्रयास शुरू कर देता है।
* कई पीढियों के लिए धन संग्रह शुरू
मनुष्य यह जीवन जीने के लिए धन कमाना शुरू करता है। पहले अपनी आवश्यकताएं पूरी करता है। फिर सुख सुविधाएं जुटाता है। इन सुविधाओं से उसकी महत्वाकांक्षाएं और बढती चली जाती हैं। धीरे धीरे धन उसमें स्थायित्व का भ्रम भी पैदा कर देता है। इसलिए व्यक्ति की उसके पीछे दौड़ और मजबूत हो जाती है। जिसका उपयोग करने के लिए उसके पीछे दौड़ना शुरू किया था, व्यक्ति कब अपने जीवन की कमान उसी धन को सौंप बैठता है, उसे पता ही नहीं चलता। सब कुछ अनायास ही होता चलता है।सुविधाओं के बाद ऐश्वर्य और फिर अहंकार कब उसके मन के घर में प्रवेश कर जाते हैं, आभास ही नहीं होता। अहंकार आता है तो वह प्रदर्शन की लालसा साथ लेकर आता है। इतना ही नहीं, इसके बाद लालसाएं कभी कम नहीं होतीं और वास्तविक जीवन कभी शुरू नहीं होता।
* धन कमाएं परंतु उसे लक्ष्य न बनाएं
ऐसा नहीं है कि जीवन जीना है तो धन कमाना छोड़ दो, अपने बच्चों और परिवार की फिक्र मत करो। अभावों का जीवन भी कोई जीवन नहीं है। उससे बाहर निकलने के लिए श्रम और विवेक का सहारा लेना ही चाहिए तथा स्वयं सक्षम होकर दूसरे अभावग्रस्तों का मददगार बनने का प्रयास करना ही चाहिए लेकिन गड़बड़ वहां होती है जब मनुष्य अपनी अगली पीढी और फिर उससे अगली पीढी के लिए सुख सुविधाओं का अग्रिम इंतजाम करने में जुट जाता है। इस प्रकार के धनी व्यक्तियों को जब देखते हैं तो लगता है कि ये तो धन इकट्ठा करने के लिए ही पैदा हुए और उसी के लिए जीते हैं। ऐसे लोगों से अगर कोई गलती से पूछ ही ले कि, अब तो बहुत हो गया, अपने लिए जीना कब प्रारंभ करोगे? तो जवाब मिलेगा कि एक बार कमाई पूरी हो जाए, अपने लिए तो पूरी जिंदगी पड़ी है। सच्चाई यह है कि यह लालसा कभी खत्म नहीं होती।
* खुद के लिए जरूरत पर भी नहीं कर पाते खर्च
बहुत से लोग तो यह सब करके भी अंततः सुख प्राप्त नहीं कर पाते। वे अपने बच्चों के लिए पूरा जीवन लगा देते हैं। खुद पहले तो संघर्षों में जीते ही हैं लेकिन जब अपनी मेहनत और इच्छाओं को मसोस कर धीरे धीरे सब तरह से साधन सम्पन्न हो जाते हैं तब भी खुद के लिए खर्चा नहीं कर पाते हैं। इसका कारण यह नहीं कि वे कंजूस होते हैं, बल्कि उन्होंने इतना अभाव देखा और भोगा होता है कि उनके हाथ से स्वयं पर आवश्यक खर्च करने के लिए भी पैसा नहीं छूटता। हालांकि वही पैसा उनकी आंखों के सामने, उनकी संतानें अपने शौक-मौज में बड़ा खुलकर खर्च करती हैं।
संतान जब बड़ी होती है और योग्य तथा संस्कारी निकल जाती है तो मां बाप का जीवन पोते-पोतियों के साथ हंस बोलकर बीत जाता है अन्यथा तो वृद्धावस्था नरक बनकर रह जाती है। हम कितने ही ऐसे मामले अपने इर्दगिर्द देखते, सुनते हैं कि कुछ संतानें कैसे अपने माता पिता का जीना हराम कर देती हैं, उन्हें घर से बाहर धकेल देती हैं, मारपीट करती हैं, कोर्ट कचहरी तक चली जाती हैं। मां बाप को लगने लगता है कि इससे तो अच्छा था, संतान होती ही नहीं। लेकिन ऐसी संतान की संख्या कम है और इसीलिए यह दुनिया टिकी हुई है। हां, इससे यह संदेश अवश्य मिलता है कि व्यक्ति को धन के पीछे की दौड़ की एक सीमा अवश्य खुद को निर्धारित कर लेनी चाहिए तथा जीवन को साथ साथ जीने का प्रयास करना चाहिए। धन एकत्र कर बुढापे में सुख से जीने का मंत्र निरर्थक है। जीवन जीने के लिए बुढापे का इंतजार करना तो निरी मूर्खता है।
* धन का करें सदुपयोग
इसलिए समझदारी इसी में है कि व्यक्ति मेहनत करे, जरूरत के अनुसार पैसा कमाए। इसको इस तरह से भी कह सकते हैं कि मेहनत के अनुसार खूब पैसा कमाए परंतु अपनी जरूरतों के पंख न लगने दे। उनको सीमा के अंदर बांध कर रखे। आपकी मेहनत, पूर्वजन्म के अथवा वर्तमान के सद्कर्म और प्रभुकृपा से यदि आप सम्पन्न हुए हैं, आपने सुख सुविधाएं जुटाई हैं तो उनका उपभोग कीजिए, उपयोग कीजिये। यह हमेशा याद रखिए कि आपने जो कुछ हासिल किया है उसका सदुपयोग करने मात्र का आपको अधिकार है, दुरुपयोग का नहीं। इस भाव को स्वयं ही मन में बिठाकर अपने लिए जीना प्रारंभ करें, एक अद्भुत आनंद आना प्रारंभ हो जाएगा। और शायद यह परमानंद नहीं तो उस रास्ते की ओर बढता एक कदम अवश्य होगा।
* जरूरतमंदों के प्रति हो निस्वार्थ सेवा का भाव
यदि आपके पास पर्याप्त धन है तो खुशी खुशी उसका एक अंश उन लोगों पर खर्च करें जो बेहद अभावों में जीने के लिए बाध्य हैं। यदि आपने भी कभी अभावों का जीवन जीया है तो उस पीड़ा को आप आसानी से महसूस कर सकेंगे। यदि आप एक समृद्ध परिवार में ही जन्मे, पले, बढे तो भी यदि आप में दया, करुणा, विनय का भाव है तो आप जरूरतमंदों के प्रति अपने दायित्व से कभी विमुख नहीं होंगे। यदि आप अभावों से अथवा किन्हीं कारणों से कष्ट सहते हुए ऊपर आए हैं तो जो कुछ आपने अपनी मेहनत से कमाया है उसमें से समय समय पर अपनी उन इच्छाओं पर भी खर्च करें जिनके बारे में कभी आप सुनहरे स्वप्न देखते या कपोल कल्पनाएं करते थे। कहीं घूमने फिरने जाना हो, कोई धार्मिक यात्रा करनी हो, किसी निर्धन की बेटी की शादी में मदद करने का आपका मन हो, किसी असहाय की बीमारी में कुछ बड़ा खर्च करने की आवश्यकता हो और आपका दिल उसकी मदद करने को आतुर हो रहा हो, किसी वृद्ध महिला पुरुष की कोई आवश्यकता उसकी संतान पूरी नहीं कर रही हो परंतु आप करने में सक्षम हों तो बिना ज्यादा सोचे विचारे, ऐसा सहयोग पूरे दिल से करें। यह सभी कार्य अपने जीने के ढंग में ही शामिल हैं।
* केवल धनवान नहीं, अच्छा इंसान भी बनें
मेरा तो यह मानना है कि केवल खूब धन कमा लेने से व्यक्ति को अच्छा जीवन जीना नहीं आ सकता क्योंकि यदि ऐसा होता तो हर धनवान खूब सुखी होता। लेकिन ऐसा नहीं है। बहुत से लोग धन होने के कारण सुविधाओं के बीच जीवन तो व्यतीत कर रहे हैं लेकिन जी नहीं रहे। उनमें पद, प्रतिष्ठा, रुतबे और धन के अहंकार का इतना ऊंचा अंबार लग जाता है कि उनकी आंखें नीचे की और देख ही नहीं पातीं। एक समय आता है कि सामान्य व्यक्ति भी उनकी ओर पलकें उठाकर देखने का इच्छुक नहीं होता। फिर उन्हें अपना अस्तित्व कायम रखने के लिए दूसरे रास्तों का सहारा लेना पड़ता है।
इसके विपरीत, यदि व्यक्ति का स्वभाव अच्छा हो, लोगों से उसका व्यवहार बढिया हो, वह मेहनती- कर्मयोगी हो, उसकी नीयत अच्छी हो और हृदय में दया, करुणा के भाव के साथ समाज या मानव मात्र की सेवा करने की ललक हो तो उसे परम तत्व को प्राप्त करने कहीं जाना नहीं पड़ता, उस बह्म ज्ञान को पाने के लिए अलग से प्रयास नहीं करने पड़ते, कोई विशेष उपाय या उपक्रम नहीं खोजने पड़ते, वह परमात्मा स्वयं उसे किसी न किसी रूप में मिल जाते हैं। वे खुद उसके पास चलकर आ जाते हैं। ऐसे व्यक्ति के जीवन में किसी भी पल वह रोशनी अपने आप चमक उठती है जिसे परम आनंद कहते हैं, जिसे ब्रह्मानंद कहते हैं, जिसे ब्रह्मज्ञान कहते हैं। वह किसी भी क्षण उस शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है जिसके लिए लोग धन की पोटली सिर पर लादे हुए दर दर की ठोकरें खाते फिरते हैं, गुरुओं को बदलते रहते हैं, मार्गदर्शक ढूंढते फिरते हैं परंतु जीवन की शाम ढलने का वक्त आने तक भी जीना नहीं सीख पाते।