देने की आदत
देने की आदत
श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत
उसने सोचा कि राजा के महल के तो कोई पास भी फटकने नहीं देता इसलिए महल में जाने और उनसे कुछ मांगने का कभी सौभाग्य मिल नहीं पाया। आज धनभाग मेरे कि सुबह सुबह राजा खुद सामने पड़ गए हैं तो दिल खोलकर मांग लूंगा। वे कुछ न कुछ तो देंगे ही। उनका छोटामोटा उपहार भी मेरे लिए तो बहुत बड़ा होगा। भिखारी मन ही मन योजना बना ही रहा था कि ठीक उसके सामने आकर राजा का रथ रुक गया। राजा रथ से नीचे उतरा और उसने तुरंत भिखारी के सामने अपनी चादर फैला दी और कहा कि यों तो तुम भिखारी हो परंतु आज मुझे तुमसे भिक्षा चाहिए।जो भी ठीक समझते हो, वह दे दो परंतु इनकार मत करना, राज्य के अस्तित्व का सवाल है, कोई जोर जबरदस्ती नहीं परंतु आज मैं तुमसे भिक्षा मांग रहा हूं, इसलिए जो भी तुम्हारे पास हो उसमें से कुछ मुझे दे दो। राज्य को संकट से उबारना है। मुझे ज्योतिषियों ने बताया है कि राज्य पर बहुत भारी संकट आने वाला है। उन्होंने सलाह दी है कि यदि मैं पूर्णिमा के दिन सूर्योदय होते ही जो भी पहला व्यक्ति मेरे सामने आ जाए उसी से भिक्षा मांगकर लानी है। ऐसा करने पर संकट टल जायेगा। तुम मुझे सूर्योदय होते ही सबसे पहले दिखाई दिये हो इसलिए तुमसे भीक्षा मांग रहा हूं। भिखारी के तो होश उड़ गए। वह कुछ राजा से मांग पाता, उससे पहले तो राजा ने चादर फैला दी। राजा ने कहा, मुझे मालूम है कि तुम भिखारी हो परंतु क्या करूं ज्योतिषी के आदेश का पालन करना है। जो कुछ भी तुम्हारे पास है, उसमें से कुछ दे दो।
भिखारी तो बड़ा संकट में फंस गया। उसने तो हमेशा मांगा ही मांगा। कभी किसी को कुछ दिया नहीं। काम ही नहीं पड़ा। भिखारी से मांगता कौन है? इसलिए उसको देने की आदत ही नहीं थी। वह बड़ी दुविधा में पड़़ गया। उसने तो सोचा था कि आज राजा से उपहार पाकर निहाल हो जायेगा। उसे फिर कभी भीख नहीं मांगनी पड़ेगी। यहां तो राजा ही भीख मांग रहा है। मन तो बिल्कुल नहीं था कि अपनी झोली में से राजा को कुछ दे परंतु कोई बच निकलने का रास्ता ही नहीं था। उसने झोली में हाथ डाला और दो गेहूं के दाने निकालकर राजा की चादर में डाल दिए। यह उसके लिए आसान नहीं था क्योंकि देने की आदत ही नहीं थी। बस, लेने की आदत थी।
राजा कुछ नहीं बोला और तुरंत अपना रथ मोड़ा और राजमहल की तरफ निकल पड़ा। उस दिन भिखारी को खूब भीख मिली। गेहूं, चावल, दाल, नकदी, सब कुछ लेकिन वह खुश नहीं था। घर पहुंचा तो पत्नी झोली देखकर खुश हो गई। इतनी भीख कभी नहीं मिली थी लेकिन वह खुद उदास था। उसे बार बार यह लग रहा था कि आज तो बैठे बिठाये नुकसान हो गया। राजा से कुछ मिलना तो दूर, दो गेहूं के दाने और देने पड़े। उसकी पत्नी ने सारी भीख एक बर्तन में उंडेल दी तो वह यह देखकर आश्चर्यचकित रह गयी कि अनाज के उन दानों में से दो दाने सोने के हो गये थे। अब तो भिखारी छाती पीट पीटकर रोने लगा। वह पछताने लग गया कि उसने राजा को भीख में दो दाने ही क्यों दिए। झोली में जो कुछ था, सब भिक्षा में दे देता तो सब सोने का हो जाता। लेकिन अब पछताने से क्या हो सकता था?
इस कहानी से दो संदेश मिलते हैं। पहला, अगर आप किसी को कुछ देते हैं तो उससे कहीं ज्यादा आपको वापस मिलता है, इसलिए अगर आप देने की स्थति में हैं तो मुट्ठी को कसकर मत दबाइए बल्कि खुले हाथ और उदार दिल से देने की कोशिश कीजिए। दूसरा, अगर अच्छी प्रवृत्तियों को नहीं अपनाएंगे तो उनकी आदत नहीं पड़ेगी। ऐसे में कभी आप चाहेंगे तब भी वह नहीं कर पायेंगे जो करना चाहिए, क्योंकि वह आपकी आदत में शुमार ही नहीं है। इसलिए यदि आप समृद्ध हैं, आपके पास ईश्वर का दिया सब कुछ है, आप उन सब सुख सुविधाओं को भोग रहे हैं और आपके पास अतिरिक्त भी है तो उस स्थिति में किसी की भलाई के लिए कोई अवसर उपस्थित हुआ है तो उस समय कृपणता न दिखाएं, जितना खुशी खुशी कर सकते हैं, उस व्यक्ति या उस अच्छे कार्य के लिए अवश्य कीजिए।
कुछ लोग देखादेखी ही कर पाते हैंः
बहुत से लोगों के पास देने के लिए बहुत कुछ है परंतु स्वयं आगे बढकर किसी को कुछ देने का उनका मन नहीं होता। ऐसे लोग दूसरों की देखादेखी जरूर हाथ खोलते हैं। ऐसे लोग तो भगवान को देखादेखी ही कुछ चढा पाते हैं। आरती की थाली में जब दूसरों को दस रुपये का, 20 रु का, 50 रु. का नोट चढाते हुए देखते हैं तो ये भी अपनी जेब में हाथ डालते हैं। जेब में रखा सबसे छोटा नोट निकालते हैं और हाथ में से तब तक नहीं छोड़ते, जब तक कि आसपास खड़े दो चार लोग देख न लें। जिस ईश्वर ने हमें सब कुछ दिया है, उसके प्रति मन में श्रद्धा भी है, सामर्थ्य भी है फिर भी हाथ से छूटता नहीं। अपने मन को खुद ही समझा लेते हैं कि उस ईश्वर के पास किस चीज की कमी है जिसने सबको दिया ही दिया है। उसको कुछ देने की हमारी क्षमता कहां है? यह कहकर हाथ को रोक लेते हैं। देते भी हैं तो कम से कम देने की कोशिश करते हैं। जेब में अगर नोट से कम, एक सिक्का हो तो उसी से काम चला लेते हैं।
मान लिया कि भगवान को कुछ देने की हमारी सामर्थ्य कहां, वह तो सर्वशक्तिमान हैं। परंतु जो हमसे कमजोर है, जरूरतमंद है और उसको की गई छोटी सी मदद उसके चेहरे पर बड़ी मुस्कान ला सकती है तथा हम समर्थ भी हैं कि हम वह कर सकते हैं, लेकिन हमसे वह मदद होती नहीं। कभी कभी देखादेखी जरूर कर पाते हैं परंतु खुद की इच्छा नहीं होती कुछ देने की। कोई भिखारी भी अकेले में मिल जाए तो उसे अनदेखा कर हम आगे बढ जाते हैं लेकिन वही कुछ लोगों की उपस्थिति में कुछ मांग ले, उसे दूसरे भी लोग दे रहे हों तो हम भी दे देते हैं। यह प्रवृत्ति है देखादेखी सहयोग करने की।
कुछ लोग देते हैं परंतु नाम की लालसा के साथः
जब व्यक्ति धन कमा लेता है तो उनमें से कुछ ऐसे लोग होते हैं जो धार्मिक या सामाजिक कार्यों में खर्च करना चाहते हैं। बिना किसी अपेक्षा के किसी को कुछ दें या दान करें, ऐसे लोगों की संख्या नगण्य है। बहुत से लोग कुछ देते हैं तो उनके मन में कहीं न कहीं यह भाव होता है कि समाज को इसकी जानकारी होनी चाहिए कि उन्होंने क्या कुछ दिया है। उसका आवश्यक प्रचार होना चाहिए। सार्वजनिक मान सम्मान होना चाहिए। कोई नामपट्ट लगे, कोई विज्ञापन छपे। कुल मिलाकर मन में इतनी सी अभिलाषा होती है कि वे कुछ देते हैं तो दूसरों को पता तो लगना चाहिए। ऐसा भी क्या देना कि आवाज भी न हो। एक दृष्टांत का उल्लेख करना चाहूंगा।
कहते हैं कि एक बार रामकृष्ण परमहंस के पास एक व्यक्ति आया। एक झोले में पांच सौ सोने की अशर्फियाँ लाया था और रामकृष्ण परमहँस के चरणों में झोला रख दिया। उसने कहा, महाराज लीजिए 500 अशर्फियाँ हैं। बिल्कुल इनकार न करना। दिल मत तोड़ना अस्वीकार करके। धीरे से नहीं, जोर जोर से कहा 500 अशर्फियाँ, ताकि आसपास बैठे सब लोगों को सुन जाए। परमहँस ने कहा, कर तो दिया झंझट ही। परंतु चलो कोई बात नहीं। तुमने तो मुझे भेंट कर दी न? अब इनकी देखभाल कौन करेगा, तुम एक काम करो, ये ले जाओ और गंगाजी में फैंक आओ। क्योंकि मैं अब कहां इनका ध्यान रखता फिरूंगा। नहाने धोने जाओ तो इन अशर्फियों की रखवाली कौन करेगा? अब तुम ले ही आए तो तुम्हारा झंझट खत्म हुआ। अब फैंक दो गंगाजी में तो मेरा भी झंझट खत्म।
आदमी तो स्तब्ध रह गया। उस जमाने में 500 अशर्फियाँ देना कोई साधारण बात नहीं थी। उस व्यक्ति ने सोचा था कि रामकृष्ण परमहँस तारीफों के पुल बांधेंगे, मेरे त्याग की सराहना करेंगे, लोगों के समक्ष उदाहरण रखेंगे कि त्याग हो तो ऐसा, मेरी पीठ थपथपाएंगे, सिर पर हाथ रखकर विशेष आशीर्वाद देंगे। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ, उल्टे नाराज हुए कि यह झंझट क्यों ले आया। अनमने मन से उस व्यक्ति ने अपना झोला उठाया और चला गया गंगाजी के घाट पर। पास में ही थी गंगाजी। ज्यादा दूर नहीं थी। एक बार तो मन में आया कि बीच रास्ते ही भाग जाए, महात्माजी कौनसा देखने आ रहे हैं। परंतु डर लगा कि वे तो अंतरदृष्टा हैं, दूर से ही जान लेंगे। क्रोध में आकर कोई श्राप भी दे सकते हैं। इसलिए भागने की हिम्मत नहीं हुई। उसने सोचा अब ज्यादा विचार करना ठीक नहीं, मैंने तो महात्माजी के चरणों में रखदी झोली। अब वे नदी में फैंकने का कह रहे हैं तो फैंकनी ही होंगी अशर्फियाँ।
बहुत देर तक आदमी लौटा ही नहीं तो परमहँसजी ने एक शिष्य को भेजा कि जाकर देखो कहीं आदमी गंगाजी में तो नहीं डूब गया, अभी तक लौटा नहीं। शिष्य पहुंचा गंगा घाट पर तो देखा कि वहां तो सैंकड़ों लोगों की भीड़ इकट्ठा है। वह व्यक्ति झोले में से एक एक अशर्फी निकालता है, उसे पत्थर पर जोर से पटकता है और साथ में गिनती करता है 375, 376, 377…..सोने की अशर्फी को पत्थर पर जोर से पटकने पर टन्न..टन्न…की आवाज करती है। वह यह नहीं सोचता कि जब फैंकनी ही हैं तो झोला ही फैंकदे। गिनती करने से क्या होगा? लेकिन नहीं, भीड़ इकट्ठी कर धीरे धीरे एक एक कर टन्न की आवाज के साथ फैंकने का आनंद ही कुछ और है। त्याग कर रहे हो तो आवाज होने चाहिए।
इस मामले में मेरा मानना यह है कि भले ही उस व्यक्ति के मन में लोगों को बताने की लालसा रही हो, प्रचार का भाव रहा हो, लेकिन वह व्यक्ति उन लोगों से तो कई गुणा बेहतर है जो अपने पास धन का अंबार लगाकर भी किसी को कुछ दे नहीं पाते। मैं तो कहता हूं कि जो भी कोई दान करे, किसी की मदद करे उसका मान सम्मान करने में कोई बुराई नहीं है क्योंकि कम से कम उसके द्वारा किए जाने वाले सहयोग से किसी की समस्या का समाधान होता है, किसी के चेहरे पर मुस्कान आती है, किसी भूखे की जठराग्नि शांत होती है, किसी के बच्चे का स्कूल में दाखिला हो जाता है, किसी की बीमारी का इलाज हो जाता है। इस प्रकार एक व्यक्ति द्वारा दिए गए सहयोग को देखकर और बहुत से लोग सहयोग करने के लिए आगे आ सकते हैं। यह कार्य दूसरों के लिए प्रेरणादायी बन सकता है। इतना ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि किसी याचक का अपमान न हो, उसे जलील न किया जाए, उसके स्वाभिमान को ठेस न पहुंचे। मदद करने वाले का सम्मान किसी का अपमान करके नहीं करना चाहिए।
क्या संस्कारों से आती है देने की आदत?
एक महात्मा अपने शिष्य के साथ भिक्षा के लिए निकले। एक घर के सामने पहुंचकर भिक्षा देने के लिए आवाज लगाई। घर में से एक बालिका निकली। उसने कहा, महाराज हम तो खुद ही गरीब हैं। हमारे पास कुछ नहीं है कि हम आपको दे सकें। महात्मा ने कहा, बेटा ऐसा नहीं कहते। कुछ भी नहीं तो धूल की एक मुट्ठी ही झोली में डाल दो लेकिन भिक्षा मांगने आए व्यक्ति को खाली नहीं लौटाते। लड़की ने आंगन से एक मुट्ठी मिट्टी उठाकर झोली में डाल दी। घर से आगे निकलने पर शिष्य ने महात्मा को पूछा कि गुरुवर! उसके पास कुछ देने को ही नहीं था तो आपने मुट्ठीभर धूल ही भिक्षा में दे देने को क्यों कहा? महात्मा ने जवाब दिया कि देने की आदत पड़ना जरूरी है। जो आज धूल की मुट्ठी देगी वह आगे चलकर अनाज की मुट्ठी भी देगी। देने की आदत पड़ना जरूरी है। आदत ही नहीं होगी तो वह अपने जीवन में कभी भी कुछ दे नहीं सकेगी। यह संस्कारों की बात है। इसीलिए बहुत से समझदार लोग जब भी कोई समाजसेवी कार्य करते हैं तो उस मौके पर अपने बच्चों को भी साथ रखते हैं। उनके हाथ से भी कुछ न कुछ दिलवाते हैं ताकि देने की आदत पड़े। यहीं से बच्चे अच्छे संस्कार ग्रहण करते हैं।
संस्कार कभी दिए नहीं जाते, लिए जाते हैं। कुछ बच्चे संस्कार ले लेते हैं और कुछ नहीं भी लेते। यही कारण है कि एक ही मां बाप के कई बच्चे अलग अलग सोच वाले होते हैं जबकि मातापिता तो सबको एक जैसे ही संस्कार देना चाहते हैं। इसलिए यह कुछ हद तक सच हो सकता है कि देने की आदत बचपन से पड़ती है। मेरी समझ में, समय और परिस्थितियों के अनुसार, अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अपने करुणामय स्वभाव के अनुसार देने की आदत बन सकती है। यह एक अच्छी आदत है। प्रभु ने अगर हमें इस लायक बनाया है कि हम किसी के लिए कुछ कर सकते हैं, तो कम या ज्यादा, मदद करनी अवश्य चाहिए।