धर्मगुरुओं के अनुरूप गति होती है धर्म और समाज की: आचार्य विमलसागरसूरी

संतों ने किया पद विहार

धर्मगुरुओं के अनुरूप गति होती है धर्म और समाज की: आचार्य विमलसागरसूरी

धर्म और समाज की उन्नति में साधु-संताें का महत्त्वपूर्ण याेगदान हाेता है

शिवमाेग्गा/भद्रावती/दक्षिण भारत। शहर से पंद्रह दिन के प्रवास के बाद नई पदयात्रा पर निकलते हुए जैनाचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने उपस्थित श्रद्धालुओं काे संबाेधित करते हुए कहा कि धर्म और समाज की उन्नति में साधु-संताें का यानी धर्मगुरुओं का महत्त्वपूर्ण याेगदान हाेता है। 

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वे धर्म और समाज के प्राणतत्व हैं। यदि धर्मगुरु कमजाेर हाेते हैं ताे धर्म और समाज भी कमजाेर हाे जाता है। लेकिन धर्मगुरु अगर पवित्र, दूरदर्शी, निष्पक्ष, सर्वहितचिंतक और बुद्धिकाैशल्य के निधान हाेते हैं ताे वह समाज भी प्रगतिशील, प्रज्ञावान और पवित्र हाेता है। इसलिए नेतृत्वकर्ता यानी नायक का सक्षम और सही हाेना अत्यंत आवश्यक है।

आचार्य विमलसागरसूरीश्वरजी ने कहा कि शिक्षक से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है धर्मगुरु का पद। उनके कंधाें पर सद्विचार और सदाचार काे दुनिया में जिंदा रखने की बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। भगवान के बाद इस दुनिया में धर्मगुरु का स्थान हाेता है। 

भगवान की गैरमाैजूदगी में लाेग धर्मगुरु पर सबसे अधिक विश्वास करते हैं, इसलिए धर्मगुरु बलिदानी शक्ति की तरह हाेने चाहिए। जैसे सूर्य राेशनी और ऊर्जा देता है, बादल और नदियां पानी देते हैं, पेड़-पाैधे अनाज और फल देते हैं, उसी तरह धर्मगुरु अच्छाइयाें काे जीवित रखते है। 

जिस दिन धर्मगुरु यानी साधु-संत समाप्त हाेंगे, संसार में प्रलय हाेगा। अच्छे-सच्चे संताें के बलबूते पर संसार टिका है, इसीलिए हर धर्म परंपरा में अच्छे-सच्चे धर्मगुरुओं की महिमा गाई गई है। वे संसार में भगवान-ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। जैनाचार्य भद्रावती से हाेसदुर्गा के मार्ग पर आगे बढ़ रहे हैं।

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