मुफ्त की रेवड़ियां कब तक?

सबकुछ मुफ्त देने की होड़ बहुत आगे बढ़ गई

मुफ्त की रेवड़ियां कब तक?

ये अर्थव्यवस्था को किस दिशा में लेकर जाएंगी?

चुनावों से पहले 'मुफ्त चीजें' देने के राजनीतिक दलों के वादों का दृढ़ता से विरोध करने की हिम्मत कोई राजनेता तो नहीं जुटा सका, अलबत्ता उच्चतम न्यायालय ने यह कहकर एक जरूरी मुद्दे की ओर सबका ध्यान जरूर दिला दिया कि 'राष्ट्रीय विकास के लिए लोगों को मुख्य धारा में लाने के बजाय क्या हम परजीवियों का एक वर्ग नहीं बना रहे' ...। मुफ्त बिजली, मुफ्त पानी, मुफ्त यात्रा, मुफ्त खाद्यान्न ... सबकुछ मुफ्त देने की होड़ इतनी आगे बढ़ गई है कि अब हर राजनीतिक दल ऐसी लुभावनी घोषणाएं करने में दूसरे को पीछे छोड़ना चाहता है। आज कोई दल अपने चुनाव घोषणापत्र में यह लिखने का साहस नहीं कर सकता कि वोट देकर हमारी सरकार बना दीजिए, हम पहले ही दिन मुफ्त सुविधाओं को बंद कर देंगे। बंद करना तो दूर, अगर कोई यह भी लिख दे कि हम मुफ्त सुविधाओं वाली तमाम योजनाओं का पुनर्मूल्यांकन करते हुए इनके औचित्य पर विचार करेंगे, तो उसके वोट टूटने तय हैं। ये योजनाएं देश के खजाने पर भारी बोझ डालती हैं। ये भविष्य में अर्थव्यवस्था को किस दिशा में लेकर जाएंगी, इस पर सरकारों और राजनीतिक दलों ने चुप्पी साध रखी है। जो दल जितनी ज्यादा मुफ्त सुविधाएं देने का वादा करता है, वह उतना ही जनकल्याण का पक्षधर समझा जाता है। क्या जनकल्याण का यही एक तरीका है कि करोड़ों-अरबों रुपए या इतने मूल्य की चीजें / सेवाएं लोगों तक मुफ्त पहुंचा दें? इससे लोगों के जीवन में क्या बदलाव आ रहा है? लोगों के दिलो-दिमाग में यह धारणा जड़ जमाती जा रही है कि जो उन्हें सबकुछ मुफ्त दे, वही उनका हितैषी है। यह सोच नई नहीं है। प्राय: पुरानी फिल्मों / कहानियों में अमीरों से धन छीनकर उसका एक हिस्सा गरीबों को मुफ्त में बांट देने वाले शख्स का बहुत महिमा-मंडन होता था। संसाधनों के वितरण का यह तरीका सही नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन कोई इसके विरोध में नहीं बोल पाता था।  

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पिछली सदी में गरीबों की हालत में सुधार लाने के लिए यह 'अद्भुत विचार' बड़ा मशहूर हुआ था कि अमीरों का धन गरीबों में बांट दिया जाए। आज भी इस विचार के समर्थक मौजूद हैं। क्या गरीबी दूर करने का यह उचित तरीका हो सकता है? अगर इस विचित्र फॉर्मूले को धरातल पर उतार भी दें तो सभी लोगों के हिस्से में जितने रुपए आएंगे, वे कुछ दिनों में खर्च हो जाएंगे। उसके बाद क्या? गरीबी दूर करने, लोगों को सक्षम बनाने, उन्हें भुखमरी, कुपोषण से निजात दिलाने के लिए सरकार को शुरुआत में कुछ मदद जरूर देनी चाहिए। इसके बाद रोजगार सृजन के जरिए उनकी क्रय क्षमता बढ़ाने पर ध्यान देना चाहिए, ताकि जीवन में सकारात्मक बदलाव का सिलसिला आगे बढ़ता रहे। अगर आज किसी गरीब परिवार को मुफ्त राशन दिया जा रहा है, लेकिन उसके सदस्यों को न तो कोई हुनर सिखाया जा रहा है और न रोजगार के अवसर पैदा किए जा रहे हैं, तो भविष्य में यह परिवार गरीब ही रहेगा। अगर आज किसी परिवार को मुफ्त बिजली दी जा रही है, लेकिन उसे सौर ऊर्जा अपनाने के लिए प्रोत्साहन नहीं मिल रहा है, तो भविष्य में जैसे ही मुफ्त सुविधा बंद होगी, उस परिवार को बिजली बिल भारी लगेगा। अगर आज सरकारें किसानों के कर्ज माफ कर दें (पूर्व में कई बार कर्जमाफी हुई है) तो भविष्य में किसान दोबारा कर्जदार होंगे, क्योंकि खेती घाटे का सौदा बनी हुई है। सरकारें किसानों की सहायता जरूर करें। इसके साथ ही उन्हें खेती करने के उन्नत तरीकों का प्रशिक्षण भी दें। जब खेती से अच्छी कमाई होने लगेगी तो किसान कर्ज में नहीं डूबेगा। जब 'मुफ्त योजनाओं' पर कैंची चलाने की बात आती है तो जनता की ओर से यह तर्क दिया जाता है कि सांसद, विधायक और अधिकारी भी कई 'मुफ्त सुविधाएं' प्राप्त कर रहे हैं, उनके वेतन-भत्ते बढ़ रहे हैं, इस पर कोई आपत्ति क्यों नहीं करता? इसके लिए जरूरी है कि जनप्रतिनिधि और अधिकारी अपने जीवन में सादगी को अपनाकर जनता के लिए आदर्श बनें। महात्मा गांधी को देखकर उस ज़माने के बड़े-बड़े धनपति पैदल चलते थे, अपने हाथ से झाड़ू लगाते थे, खद्दर पहनते और चरखा चलाते थे। जब नेता का जीवन तपस्वी जैसा हो, आदर्श ऊंचा हो तो लोग उनसे प्रेरणा लेकर सुधार के लिए खुशी-खुशी आगे बढ़ते हैं।

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