मध्ययुगीन यात्रियों के लेखों में भी है मैसूरु दशहरा का जिक्र
मध्ययुगीन यात्रियों के लेखों में भी है मैसूरु दशहरा का जिक्र
बेंगलूरु/दक्षिण भारतमैसूरु दशहरा एक ऐसी परंपरा है जिसकी शुरुआत कब हुई थी शायद अतीत के पन्नों में कहीं दब कर रह गई है। यह एक ऐसा त्योंहार है जिसकी रुपरेखा विजयनगर के शासकों ने (१४ वीं शताब्दी ईपू. से १७ वहीं शताब्दी ईपू) तैयार की थी और उसके बाद से लेकर अभी तक उसी के अनुसार ही इस परंपरा का पालन किया जा रहा है। इसके साथ ही यह कुछ ऐसी परंपराओं में भी शामिल है जिसके बार में सबसे ज्यादा दस्तावेजिक सामग्री उपलब्ध है। मध्ययुगीन यात्रियों जिन्होंने विजयनगर के शासकों के समय यहां दौरा किया था उन्होंने भी अपने लेखों में इस प्राचीन परंपरा के बारे में विस्तृत जानकारी दी है।मध्ययुगीन यात्रियों जैसे कि पर्सियाके अब्दुर रज्जाक, डोमिंगो पेस और फर्नाओ नुनिज नेे विजयनगर साम्राज्य का दौरा किया तथा अपनी लेखनी के माध्यम से इस परंपरा के बारे में एक अमूल्य साहित्यिक विरासत का सृजन किया। पेस के बारे मंें यह माना जाता है कि उन्होंने १६ वीं शताब्दी ई.पू में विजयनगर साम्राज्य का दौरा किया था उनकी लेखनी में सितंबर के दौरान होने वाले महाभोज का संदर्भ दिया गया है। ऐसा माना गया है कि १६वीं शताब्दी के आसपास बिस्नागा साम्राज्य (विजयनगर ) का दौरा करने वाले पेस ने समकालीन शासक के बारे में वर्ष १५२०-२२ में लिखा था। पेस के लेखनी में दशहरा के दौरान तत्कालीन विजयनगर शासनकाल में महल में होने वाले विभिन्न आयोजनों जैसे कि कुश्ती, बलिदान, मंच पर ल़डकियों का नृत्य और गायकों के गीतों और विद्वानों और ब्राह्मणों के साथ राजा की चर्चा का उल्लेख किया गया है। उनकी लेखनी में एक दिलचस्प अवलोकन यह है कि राजा घो़डों, हाथियों के साथ प्रवेश करते हैं, वहां मौजूद लोग राजा को सलाम करते हैं और फिर राजा के बैठे जाने के बाद कुश्ती प्रतियोगिता शुरु होती है।शायद, यह इतिहास में ’’वज्र मुश्टी कलगा’’ नामक कुश्ती प्रतियोगिता के बारे में मिलने वाला एकमात्र संदर्भ है जिसे विजयादशमी के दौरान अभी भी मैसूरु पैलेस में आयोजित किया जाता है। पेस का मानना है कि कुश्ती का यह रूप कहीं और लोकप्रिय नहीं था। इस कुश्ती में एक पहलवान दूसरे पहलवान से इस प्रकार ल़डता था कि उसकी दांतों को तो़ड देता था या उसकी आंखों पर चोट करता था। इसके साथ ही इन यात्रियों की लेखनी में विजयनगर शासकों की सेना के बारे मंें भी बहुत कुछ लिखा हुआ है। पेस के मुताबिक सैनिक अपने पद के अनुसार प्रत्येक पंक्ति में ख़डे होते थे। सैनिकों अपने पद के अनुसार सजाए गए घो़डों और हाथियों के साथ पंक्ति में ख़डे होते थे। इन सैनिकों का चेहरा भी उनके पद के अनुसार विभिन्न प्रकार के रंगों से रंगा होता था।वाडियार साम्राज्य को दशहरा उत्सव की यह परंपरा विरासत में मिली और व १६१० ईपू. से उन्होंने श्रीरंगपटना में इस परंपरा का पालन जारी रखा। वाडेयार शासकों द्वारा १९ वीं शताब्दी तक इस परंपरा का पालन किए जाने का उल्लेख मैसूरु के बारे में लिखने वाले हायावधना राव के मैसूर गैजेटर में भी त्योहार का विवरण मिलता है। महल में कल्याण मंटपम में चित्रित भित्ती चित्र भी दशहरा उत्सव की भव्यता को बताती है जो नलवा़डी कृष्णाराज वाडेयार (१९०२-१९४०) के शासन काल के दौरान अपने चरम पर पहुंच गईं और अभी तक कुछ बदलावों के साथ जारी है।