होता है उसे हो जाने दो

होता है उसे हो जाने दो

होता है उसे हो जाने दो

दक्षिण भारत राष्ट्रमत के समूह संपादक श्रीकांत पाराशर

श्रीकांत पाराशर
समूह संपादक, दक्षिण भारत

बड़े बड़े दार्शनिकों ने यह बात कही है कि जीवन में जितने झंझट हैं वे सब इसलिए हैं क्योंकि हम छोटी बड़ी हर बात का प्रतिरोध बहुत करते हैं। यदि हम अपनी प्रतिरोध वाली आदत को छोड़ दें तो जिंदगी के सारे झमेले ही खत्म हो जाएं क्योंकि झंझट शुरू ही प्रतिरोध से होते हैं। जीवन में जो कुछ घटित हो रहा है उसे यदि हम सहज, सरल भाव से स्वीकार कर लें तो हम एक ऐसी स्थिति में पहुंच जाएंगे कि मन को एक सुकून मिलेगा, एक अद्भुत सी शांति की अनुभूति होगी। परंतु क्या यह इतना आसान है?

बिल्कुल नहीं। मनुष्य का अहंकार इसमें सबसे बड़ी बाधा बनता है। अहंकार कभी किसी समस्या को सुलझाता नहीं क्योंकि वह तो खुद ही एक समस्या है। किसी ने आपके साथ ऐसा व्यवहार किया जो अपेक्षित नहीं था, आप उसे नजरंदाज कर सकते थे परंतु अहंकार ऐसा करने नहीं देता। वह क्षमा भाव को पनपने नहीं देता, बल्कि मन पर हावी हो जाता है और आपको प्रतिरोध के लिए उकसाता है। जिसने आपके साथ अनुचित व्यवहार किया, यदि वह आपसे पद, प्रतिष्ठा, बाहुबल में कमजोर है तो आप उसे भला बुरा कहेंगे, झगड़ा करेंगे, गाली गलौज करेंगे और वह यह सब सहन कर लेगा या हो सकता है वह भी प्रतिरोध करे, बदले में कुछ गाली गलौज कर बैठे तो आप उसका भी प्रतिशोध लेने के लिए उतारू हो जाएंगे। आपके मन में द्वेष की ज्वाला धधक उठेगी।

कुल मिलाकर आपका मन असंतोष से भर जाएगा। आप बदले की भावना से सुलग उठेंगे। स्वाभाविक है कि आपके मन की शांति, या यों कहिए कि भीतर की शांति भंग हो जाएगी। जबकि इसके विपरीत यदि उस पल जो हुआ, उसे आप हो जाने देते तो उसमें एक क्षमा भाव होता। वह बात आई गई हो जाती और न आपका मन अशांत होता और न आगे की अनावश्यक योजनाएं बनाने पर आपकी व्यर्थ की ऊर्जा नष्ट होती। लेकिन यह तभी संभव होता जब आप अहंकार के भाव को अपने ऊपर हावी न होने देते तथा सहज भाव से जो उस पल घटित हुआ उसे क्षमाभाव के साथ स्वीकार कर लेते, अपना लेते।

परिस्थितियों को स्वीकार करना या उनके प्रति निरपेक्ष भाव रखना परिस्थितियों से समझौता नहीं कहलाता बल्कि इसे जो हो रहा है उसे होने दो अथवा जो हो रहा है उसका प्रतिरोध न करने का भाव कह सकते हैं। यह क्षमा का भाव है जो भीतर की शांति प्रदान करता है। प्रतिरोध करके भी अंततः हमें क्या मिल जाता है? किसी भी प्रतिरोध में हासिल कुछ नहीं होता। कभी कभी हासिल होता दिखता है परंतु वास्तव में यह केवल मन को झूठी सांत्वना देने के बराबर होता है। कभी किसी मुद्दे पर हम सामने वाले पर हावी होकर अपने अहंकार को तो संतुष्टि प्रदान कर सकते हैं परंतु इससे भी भीतर की शांति नहीं मिलती क्योंकि भीतर की बात ही अलग है।

आप किसी ठेले वाले पर रौब गांठकर उससे तोल में एक दो सेब अतिरिक्त ला सकते हो। इससे आपका अहंकार शांत होगा परंतु भीतर की शांति नहीं मिलेगी। भीतर अंतरमन के किसी कोने में कसमसाहट बनी रहेगी कि ठेलेवाला कमजोर था इसलिए हमने ऐसा किया जो ठीक तो नहीं था। किसी कमजोर से लड़ाई में भी जीतने पर अहंकार को तो एकबारगी शांति मिलेगी परंतु अंदर कश्मकश बनी रहेगी कि यदि सामने वाला आज हमसे भारी होता तो क्या होता?

सामने वाला यदि हमसे भारी हुआ तो या तो डरकर हम प्रतिरोध नहीं करेंगे और यदि प्रतिरोध किया, बात बढी और हमारी पराजय हुई तो हमारे अहंकार को भारी चोट लगेगी। हम उस हार का प्रतिशोध लेने का संकल्प लेंगे। रणनीति बनाने लगेंगे। कुल मिलाकर हमारी नींद हराम हो जाएगी। मन अशांत हो जाएगा। भीतर तक सब कुछ अशांत हो जाएगा। यह सब इसलिए कि हमने क्षमाभाव रखने के बजाय प्रतिरोध का रास्ता चुना। जो हो गया, उस पल को वापस नहीं लाया जा सकता। इसलिए उसे भुला देने या नजरअंदाज करने में ही समझदारी है। लेकिन यह समझदारी भी सहज नहीं आती। अहंकार से भी ऊपर उठकर निरापद भाव से सोचना होता है। कार्य कठिन तो है, लेकिन असंभव नहीं।

जीवन में परिस्थितियां कभी एक जैसी नहीं रहतीं। इनमें परिवर्तन अवश्यंभावी है जिसे जो व्यक्ति सहज स्वीकार कर लेता है उसे कभी कोई कष्ट या परेशानी का अनुभव नहीं होता है और जो व्यक्ति इसे सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता है वह प्रतिरोध के भाव जागृत होने के कारण दुखी होता है। जबकि यह सब स्वाभाविक है। किसी की भी जिंदगी में हर समय समान नहीं होता। पद, प्रतिष्ठा, अधिकार, धन, सम्पत्ति, संबंध ये सब हमारे साथ जुड़े होते हैं तो हमें खूब अच्छे लगते हैं। हमें सुख की प्रतीति होती है। मन को खुशी मिलती है।

जब पद या प्रतिष्ठा कम होती है, अधिकार छिन जाते हैं या दूसरों को स्थानांतरित करने पड़ते हैं तो मन इस बदलाव का विरोध करता है और मन की शांति भंग होती है। यदि बदलाव का प्रतिरोध करने के बजाय यह सोच लिया जाए कि पद अथवा अधिकार स्थायी नहीं होते, आगे आने वाली पीढियों के लिए स्थानांतरण आवश्यक है। आज आप जिन्हें पद सौंपेंगे, कुछ वर्षों बाद वे भी किसी और को इसी प्रकार पद और अधिकारों का स्थानांतरण करेंगे। आपसे पहले भी कोई और इस पद पर थे, वे अगर पद और अधिकार अपने पास ही रखते तो आपको यह कैसे प्राप्त होते? जब समझदारी का यह भाव आ जाता है तो प्रतिरोध करने की इच्छा बलवती नहीं होती और हम अपने अशांत मन को खुद ही शांत कर लेते हैं।

इसी प्रकार सफलता, असफलता, सम्पन्नता, विपन्नता भी सुख दुख का कारण बनती हैं परंतु यदि व्यक्ति यह मान ले कि जन्म से लेकर मृत्यु तक बहुत कुछ अवश्यंभावी है, उसका प्रतिरोध न किया जाए तो मन शांत बना रहता है। सफलता मिलने पर खुशी होती है किंतु हमेशा सफलता भी हासिल नहीं होती, भले ही कितना भी शक्तिशाली, बुद्धिमान, सक्षम व्यक्ति हो, कभी न कभी उसे भी असफलता को स्वीकार करना पड़ता है। धनी व्यक्ति के पास सुख सम्पदा आती है, बढती रहती है तो उसे खुशी होती है परंतु उसे भी गरीबी के दिन देखने पड़ सकते हैं। यदि वह यह सोच ले कि उस जैसे धनी व्यक्ति को पैसे का अभाव कैसे आ सकता है, तो वह यह सोच सोचकर अपने दुख को बढा ही सकता है जबकि परिस्थितियों को स्वीकार करते हुए वह यह सोच ले कि ऐसा केवल उसके अकेले के साथ नहीं हो रहा है, होता रहता है, यह भी जिंदगी का एक पहलू है।

इस निरापद भाव से वह मन के भीतर तक शांति का अनुभव कर सकता है। शरीर के बारे में भी यही सच है। वह भी उम्र के साथ क्षीण होता है। हमेशा कोई भी शारीरिक रूप से ताकतवर नहीं रहता। पहलवान भी नहीं। शारीरिक शक्ति भी शीर्ष पर पहुंच कर ढलान की ओर आती ही है। इसे भी सहज भाव से लेना चाहिए, प्रतिरोध नहीं करना चाहिए। यहां प्रतिरोध का मतलब यह नहीं कि आपका शरीर कमजोर होने के लिए आप किसी को दोषी ठहरा कर उससे झगड़ा करेंगे, बल्कि ऐसी स्थितियों में व्यक्ति मन ही मन दुखी हो जाता है। वह यह स्वीकार नहीं कर पाता कि उस जैसा सशक्त व्यक्ति भी शारीरिक रूप से कमजोर हो सकता है। यह सोच उसे अशांत कर देती है।

हर परिस्थिति अस्थायी होती है। निरंतर परिवर्तन स्वाभाविक है। इस बात को जितना जल्दी स्वीकार कर लें, उतनी ही जल्दी भीतर की शांति प्राप्त होने लगती है। जिस परिस्थिति से आज आप खुश हैं, कल जब वह बदलेगी तो काटने दौड़ेगी। इसलिए अपने मन को उससे जुड़ने न दें। जीवन में यदि सहज, सरल होकर, जो हो रहा है उसे स्वीकार कर लें, उसे हो जाने दें तो एक वास्तविक आनंद की अनुभूति होती है। जब आप प्रतिरोध करना छोड़ देते हैं और अपने मन को उसी अनुसार समझा लेते हैं तथा अहंकार को हावी नहीं होने देते हैं तो भीतर की शांति की अनुभूति होती है और यह शांति अनुपम होती है, अद्भुत होती है।

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