बंद हो रहा कोल्हू से तेल निकालने का कारोबार, परिवारों के सामने गुजर-बसर का संकट

बंद हो रहा कोल्हू से तेल निकालने का कारोबार, परिवारों के सामने गुजर-बसर का संकट

सांकेतिक चित्र

मिर्जापुर/भाषा। मिर्जापुर की कैमूर की पहाड़ी के दक्षिणांचल में गड़बड़ा गोकुल गांव भारत के उन गिने-चुने गांवों में से एक है जहां आज भी कोल्हू से तेल की पेराई होती है। लेकिन धीरे-धीरे यह चलन बंद हो रहा है। लगभग 300 तेली परिवारों वाले इस गांव में महज एक ही परिवार बचा है जहां बैल द्वारा कोल्हू से तेल निकाला जाता है, बाकी परिवारों ने यह काम छोड़ दिया है।

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मिर्जापुर से 60 किलोमीटर दूर लालगंज तहसील के हलिया ब्लॉक में पड़ने वाले गड़बड़ा गोकुल गांव के प्रधान रमा निवास वर्मा ने बताया, तीस साल पहले तक इस गांव में तेली बिरादरी के करीब 150 परिवार थे और हर घर में कोल्हू था। आज स्थिति दयनीय है।

उन्होंने कहा, गांव के लोग एक्सपेलर से तेल निकलवाने लगे हैं क्योंकि मशीन से तेल पेराने पर जहां तेल अधिक निकलता है, वहीं दूसरी ओर उन्हें खली भी मिल जाती है जिसे वे 20 रुपए प्रति किलो के भाव से बेचकर पैसे कमा लेते हैं। हालांकि, स्वास्थ्य की दृष्टि से कोल्हू के तेल का कोई जवाब नहीं है।

आयुर्वेद के क्षेत्र में काम कर रही देश की अग्रणी कंपनी जीवा आयुर्वेद के निदेशक डॉक्टर प्रताप चौहान के मुताबिक, आज विदेशों में बहुत से लोग अमूमन 500 से 1,000 रुपए प्रति लीटर में बिकने वाले कोल्ड प्रेस्ड ऑयल का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में तेल बहुत धीमी गति से निकाला जाता है जिससे उसके सभी पौष्टिक तत्व विद्यमान रहते हैं।

डॉक्टर चौहान ने कहा, विदेशों में अत्यधिक धीमी गति से चलने वाली मशीन से यह तेल निकाला जाता है जबकि हमारे देश में सदियों से लोग कोल्हू का तेल खाते रहे हैं और स्वस्थ तथा दीर्घायु रहे हैं।

गड़बड़ा गोकुल गांव में बैल चालित कोल्हू से तेल निकाल रहे मोहन ने बताया, हम एक बार में 2 किलो सरसों की पेराई कर पाते हैं जिसमें से 400 ग्राम तेल यानी 20 प्रतिशत तेल निकलता है और इसमें ढाई घंटे लग जाते हैं। वहीं एक्सपेलर वाले 3 किलो सरसों में एक किलो तेल निकाल देते हैं।

मोहन के पिता शिव मूरत ने अपना अलग कोल्हू लगा रखा है। इसके अलावा, शिव मूरत के बड़े भाई सुखराज के घर में भी एक कोल्हू अभी चालू हालत में है। वहीं परिवार के एक अन्य सदस्य दिनेश ने 15 साल पहले ही यह काम छोड़कर रतिया चौराहे पर गोलगप्पे बेचने का काम शुरू कर दिया था।

शिव मूरत ने बताया, रोजगार का कोई अन्य साधन नहीं होने के कारण हम गुजर-बसर के लिए कोल्हू चला रहे हैं। इसके लिए 1,500 रुपए में एक बैल भी खरीदा है, लेकिन अब उम्र बढ़ चली है और लगता नहीं कि ज्यादा दिन तक यह काम कर सकेंगे।

गड़बड़ा गोकुल गांव के प्रणेज कुमार, हनुमान सिंह पटेल और शिवकली जैसे लोग अब कोल्हू से तेल निकालने का काम छोड़ चुके हैं। उनका कहना है कि इससे अधिक कमाई नहीं होती और महंगाई के जमाने में परिवार चलाना मुश्किल है। उनका कहना है कि आज करीब 25 प्रतिशत तेली गोलगप्पे बेच रहे हैं।

पास के गांव भटपुरवा के पूर्व प्रधान रमा शंकर चौरसिया ने बताया कि मशीन से तेल निकलवाने पर तेल की पौष्टिकता कम हो जाती है और उससे निकलने वाली खली भी अच्छी नहीं होती। इसका सेवन इनसान और जानवर दोनों के लिए फायदेमंद नहीं है।

आयुर्वेदाचार्य नरेंद्र नाथ केसरवानी के मुताबिक, आयुर्वेद में वात को ठीक रखने के लिए सबसे अच्छी चीज कोई है तो वह कच्ची घानी से निकाला गया शुद्ध तेल है। शुद्ध तेल नहीं खाने से देश में वात के रोगियों की संख्या तेजी से बढ़ रही है।

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