प. बंगाल विधानसभा चुनाव में ओवैसी की एंट्री से ममता बनर्जी की तृणमूल को नुकसान?

प. बंगाल विधानसभा चुनाव में ओवैसी की एंट्री से ममता बनर्जी की तृणमूल को नुकसान?

नई दिल्ली/भाषा। बिहार चुनाव के बाद अब सबकी नजरें अगले साल अप्रैल-मई में होने वाले पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव पर हैं। भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने जहां अभी से प्रदेश के दौरे शुरू कर दिए हैं तो सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस के कई नेता हाल के दिनों में भाजपा में शामिल हुए हैं। कांग्रेस और वाम दलों के बीच गठबंधन होने को लेकर भी सुगबुगाहट है। इन्हीं बिंदुओं पर पेश हैं ‘सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज’ (सीएसडीएस) के निदेशक संजय कुमार से भाषा के पांच सवाल और उनके जवाब।

सवाल: बिहार चुनाव के नतीजों, तृणमूल कांग्रेस के कई नेताओं के अलग होने और भाजपा के शीर्ष नेताओं के दौरों से पश्चिम बंगाल से फिलहाल किस तरह के संकेत मिलते हैं?

जवाब: बिहार चुनाव के नतीजे से भाजपा का मनोबल बढ़ा है और यही वजह है कि उसके नेताओं के पश्चिम बंगाल में कार्यक्रम जोर-शोर से चल रहे हैं। राज्य में उनके कार्यकर्ताओं का मनोबल भी बढ़ा है। जहां तक बात नेताओं के किसी पार्टी को छोड़ने की है तो मैं यह सकता हूं कि एक साथ बहुत ज्यादा लोग पार्टी छोड़कर जाते हैं तब कहा जा सकता है कि पार्टी का जनाधार खिसक रहा है। एक-दो नेताओं के पार्टी छोड़ने के कई कारण हो सकते हैं। इससे यह नहीं जा सकता कि तृणमूल का जनाधार खिसक रहा है। इसमें कोई शक नहीं है कि वहां भाजपा का जनाधार बढ़ा है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस से एक-दो नेताओं के जाने से कोई बड़ा संकेत नहीं मिलता।

सवाल: ममता बनर्जी के खिलाफ भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री का कोई बड़ा चेहरा दिखाई नहीं दे रहा है। इस चुनाव में यह कितना बड़ा कारक हो सकता है?

जवाब: साल 2014 में हरियाणा, झारखंड और महाराष्ट्र में हम देख चुके हैं कि भाजपा ने राज्य स्तर पर किसी बड़े चेहरे के बिना चुनाव लड़ा और अच्छा प्रदर्शन किया। अगर किसी के पक्ष में हवा बन जाती है तो लोग चेहरा नहीं देखते हैं। हां, ममता बनर्जी की अपनी लोकप्रियता है, लेकिन उनका व्यक्तित्व ऐसा दिखाई देता है कि उनके प्रशंसकों के साथ बड़ी संख्या में उनके विरोधी भी हैं। ये विरोधी यही चाहेंगे कि इनके अलावा कोई भी दूसरा मुख्यमंत्री बन जाए। अगर बड़े पैमाने पर ऐसी धारणा बन जाती है तो फिर चेहरे की ज्यादा अहमियत नहीं रहती।

सवाल: अब तक देखा गया है कि लोकसभा चुनाव के मुकाबले राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा का प्रदर्शन कमतर रहा है। इस संदर्भ में पश्चिम बंगाल की स्थिति को आप कैसे देखते हैं?

जवाब: पश्चिम बंगाल और उन राज्यों में अंतर है जहां हाल के समय में विधानसभा चुनाव हुए हैं। हरियाणा, झारखंड, महाराष्ट्र और बिहार में भाजपा अपनी सरकार बचाने के लिए चुनाव लड़ी थी और उसके पास विपक्ष को घेरने के लिए ज्यादा गुंजाइश नहीं थी। दिल्ली को आप अपवाद कह सकते हैं। लेकिन पश्चिम बंगाल में वह सत्ता में आने के लिए चुनाव लड़ेगी। लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन बेहतरीन रहा है, ऐसे में उसके समर्थकों को यह महसूस हो रहा होगा कि भाजपा सरकार बना सकती है। अगर पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव लोकसभा चुनाव से पहले होता तो शायद भाजपा को इतनी ज्यादा उम्मीद नहीं होती।

सवाल: वाम दलों और कांग्रेस के गठबंधन को लेकर चर्चा है तो कुछ लोग सभी प्रमुख भाजपा विरोधी दलों के एकजुट होने की स्थिति बनते देख रहे हैं। इन दोनों स्थितियों का चुनाव में किस तरह का असर हो सकता है?

जवाब: अगर तृणमूल कांग्रेस, वाम दल और कांग्रेस गठबंधन करते हैं तो भाजपा इसका फायदा उठाने की पूरी कोशिश करेगी। वह कहेगी कि ये लोग उसके खिलाफ साथ आ गए हैं। ऐसे में उसे फायदा हो सकता है। लेकिन अगर सिर्फ वाम दल और कांग्रेस का गठबंधन होता है तो यह ममता बनर्जी के फायदे वाली स्थिति हो सकती। ममता समर्थक वोट बैंक अपनी जगह है और ऐसे में ममता विरोधी वोट बंटता है उससे तृणमूल को मदद मिल सकती है। मुझे लगता है कि त्रिकोणीय मुकाबला होने पर ममता बनर्जी के लिए अनुकूल स्थिति पैदा हो सकती है। वैसे, अभी किसी नतीजे पर पहुंचना जल्दबाजी होगा, लेकिन मैं एक बात कह सकता हूं कि बहुत ही कड़ा मुकाबला होने जा रहा है। जैसा बिहार में देखने को मिला था, स्थिति उसी ओर जा रही है।

सवाल: क्या एआईएमआईएम के चुनाव लड़ने और सीएए-एनआरसी जैसे मुद्दों से तृणमूल कांग्रेस के लिए चुनौती बढ़ सकती है?

जवाब: असदुद्दीन ओवैसी का प्रयोग जिस तरह बिहार में सफल रहा, अगर वह पश्चिम बंगाल में भी आते हैं और उनका यही प्रदर्शन रहता है तो निश्चित तौर पर ममता बनर्जी को नुकसान हो सकता है। वह जितना भी वोट हासिल करेंगे, उससे तृणमूल कांग्रेस के लिए मुश्किल बढ़ेगी। आम तौर पर पश्चिम बंगाल में जाति आधारित चुनाव नहीं होता है। वहां धार्मिक कार्ड खेला जा सकता है। ऐसे में भाजपा सीएए और एनआरसी के मुद्दे को बड़े पैमाने पर उठा सकती है। अब देखना होगा कि तृणमूल कांग्रेस इन पर क्या रणनीति अपनाती है।

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