संयोग और वियोग कर्म की धरोहर हैं: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी
आध्यात्मिक दृष्टि मानकर चलोगे तो पाने में सुख और खोने में दुःख महसूस नहीं होगा

जीवन का हर संयोग वियोग मय है, जो आया है तो वह जाएगा
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी व साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी के सान्निध्य में चल रहे चातुर्मास में आचार्यश्री ने कहा कि संयोग और वियोग कर्म की धरोहर है।
उन्होंने कर्म की व्याख्या करते हुए कहा कि हमारे जीवन में कभी एकरुपता नहीं रहती, कभी हम खुश रहते है तो कभी हम खिन्न हो जाते है। कई बार हमें शांति रहती है,तो कई बार अशांति आ जाती है कई क्षणों में हमें फक्र महसूस होता है तो कभी हम फिक्र में डूब जाते है, कभी आनंद तो कभी अवसाद, कभी आशा तो कभी निराशा, कभी सुःख तो कभी दुःख, कभी शांति कभी अशांति जो कुछ भी घट रहा है वह मात्र महज संयोग है तथा कर्म की धरोहर है।जो पाया है वह भी तेरा नहीं जो खोया है वह भी तेरा नहीं, ऐसी आध्यात्मिक दृष्टि मानकर चलोगे तो पाने में सुख और खोने में दुःख महसूस नहीं होगा।
आचार्यश्री ने कहा कि जीवन का हर संयोग वियोग मय है, जो आया है तो वह जाएगा जो इस सत्य को जो पहचान लेता है। अनूकूलता और प्रतिकूलता दोंनों ही क्षण भंगुर है। संयोग-वियोग कर्म की धरोहर है। कर्म कहता है तुम इसका उपयोग करो दुरुपयोग मत करना।
आचार्यश्री ने कहा कि जैन धर्म में, विनय एक ऐसा गुण है जो संयोग और वियोग दोनों में ही महत्वपूर्ण है। यह हमें आत्मसाक्षात्कार और मोक्ष की प्राप्ति के लिए आवश्यक है।
सभा में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी उपस्थित थे।