भाषा के प्रचार का यह कैसा तरीका?
भाषा सीखने से कई फायदे होते हैं
भाषावाद के नाम पर सियासी रोटियां सेक रहे कुछ नेता
इन दिनों महाराष्ट्र में जिस तरह मराठी बनाम हिंदी भाषा का मुद्दा उछाला जा रहा है, वह हमारे देश के लिए शुभ संकेत नहीं है। कुछ नेता अपना वोटबैंक पक्का करने के लिए देशवासियों को एक-दूसरे के खिलाफ उकसा रहे हैं। ऐसा नहीं होना चाहिए। लोगों को यह बात समझनी होगी कि विविधता में एकता हमारे देश की ताकत है। अगर हम भाषावाद, क्षेत्रवाद, जातिवाद के नाम पर आपस में लड़ते-भिड़ते रहेंगे तो देश कमजोर होगा। भारतविरोधी ताकतें चाहती हैं कि देश में ऐसे हालात पैदा हों कि लोग किसी-न-किसी बहाने से एक-दूसरे का गिरेबान पकड़ें। लोगों को सोचना होगा कि कहीं हम अनजाने में उनके मंसूबे तो पूरे नहीं कर रहे हैं? मराठी बहुत सुंदर भाषा है। यह महान संतों और योद्धाओं की भाषा है। जब भी इस भाषा का उल्लेख होता है, छत्रपति शिवाजी महाराज की छवि का स्मरण हो जाता है। जो लोग महाराष्ट्र में रहते हैं, अगर वे मराठी भाषा सीखेंगे तो उनके लिए विभिन्न कार्यों में आसानी होगी। यह बात हर राज्य और केंद्रशासित प्रदेश में लागू होती है। जो व्यक्ति किसी जगह की भाषा जानता है, वह उधर आसानी से संवाद कर सकता है, लोगों के साथ घुलमिल सकता है। भाषा सीखने के अपने फायदे हैं, लेकिन इसके लिए लोगों को धमकाना, अपमानित करना गलत है। क्या इस तरह अपनी भाषा का प्रचार किया जा सकता है? इससे अन्य लोगों में क्या संदेश जाएगा? क्या वे अपमानित महसूस करने के बाद उस भाषा और समाज के लिए अपने मन में सम्मान की भावना रखेंगे?
कोई भी भाषा रातोंरात नहीं सीखी जा सकती। उसमें समय लगता है। कुछ लोग पांच साल में संबंधित भाषा नहीं सीख पाते, वहीं ऐसे लोग भी मिल जाएंगे, जो दो-चार महीने में बढ़िया पकड़ बना लेते हैं। हर व्यक्ति की सीखने की क्षमता अलग-अलग होती है। ऐसे में राह चलते, बाजार में खरीदारी करते किसी शख्स को रोक कर यह कहना कि 'हमारी भाषा में बात करें, अन्यथा राज्य छोड़कर चले जाएं', कहां तक उचित है? ऐसी हरकतों से कुछ लोग भयभीत हो सकते हैं, लेकिन कुछ लोग डटकर विरोध भी कर सकते हैं। वे संबंधित भाषा सीखने से साफ इन्कार कर सकते हैं। क्या भाषावाद के नाम पर सियासी रोटियां सेक रहे नेता जानते हैं कि इससे सामाजिक सद्भाव पर क्या असर होगा? हमारे देश की सभी भाषाएं बहुत सुंदर हैं। उनमें उत्कृष्ट साहित्य रचा गया है। उनका व्याकरण अद्भुत है। भाषा का प्रचार-प्रसार प्रेम और सद्भाव से ही किया जा सकता है। भाषा के नाम पर लोगों को सताने, चिढ़ाने से नेताओं को क्षणिक लाभ तो मिल सकता है, लेकिन इससे देश में एकता की डोर कमजोर हो सकती है। अगर किसी इलाके में लंबी अवधि तक भाषावाद का मुद्दा प्रबल रहेगा तो उससे निवेशक मुंह मोड़ सकते हैं। वे उन राज्यों का रुख कर सकते हैं, जो भाषा के मामले में 'उदार' हों। क्या इससे भाषावाद प्रभावित इलाकों में लोगों के आर्थिक हितों को नुकसान नहीं होगा? जो नेता आज भाषावाद के नाम पर लोगों को भड़का रहे हैं, वे भविष्य में कोई और शिगूफा छोड़ेंगे, उससे वोटबैंक बनाने की चाल चलेंगे। यह सिलसिला हमें कहां लेकर जाएगा? इससे जनता को क्या फायदा होगा? लोगों में फूट डालने वाले ऐसे नेता और उनके परिजन कभी तो विदेश जाते होंगे! अगर वहां उनसे स्थानीय लोग कहने लगें कि 'यहां आना है तो हमारी भाषा बोलें', तो उन्हें कैसा लगेगा? भाषाओं को जोड़ने का माध्यम बनाएं, तोड़ने का नहीं। इस देश को एकजुट करने के लिए हमारे पूर्वजों ने असंख्य बलिदान दिए हैं। जो नेता किसी भी तरीके से देशवासियों में भेद पैदा करने की कोशिश करे, उससे सावधान रहें।

