सद्गुरु के समागम से सन्मार्ग की प्राप्ति होती है: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी

'आत्मा पुण्य-पाप का विवेक नहीं करती'

सद्गुरु के समागम से सन्मार्ग की प्राप्ति होती है: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी

'मात्र स्वदेह में आसक्त रहती है'

बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी व साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी की निश्रा में अपने प्रवचन में आचार्यश्री ने कहा कि जीवन में परिस्थितियों, ऋतुओं, मनुष्यों, देवों, तिर्यंचों आदि की प्रतिकूलता के कारण जो कष्ट आते हैं, उनमें मूल कारण तो साधक के अपने पूर्वकृत कर्म ही
होते हैं। जीवन में कर्म सत्ता सबसे बड़ी सत्ता है। 

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आचार्यश्री ने कहा कि आत्मा पुण्य-पाप का विवेक नहीं करती। मात्र स्वदेह में ही आसक्त रहती है, दूसरे के सुख-दुख का विचार नहीं करती। इस प्रकार पाप आचरण से आत्मा नए कर्मों का बंध करते हुए अनेक दुख का अनुभव करती है। 

उन्होंने कहा कि सदगुरु के समागम से सन्मार्ग की प्राप्ति होती है, आत्मस्वरूप का ज्ञान होता है। तप धर्म के निरंतर अभ्यास से आत्मा देह के भयंकर दुखों में भी दृष्टा मात्र बन कर रहती है। सम्यक तप से आत्मा देह के नाश के बावजूद दुख का अनुभव नहीं करती। 

उन्होंने कहा कि तप धर्म के अभ्यास से व्यक्ति सहनशील बनता है और देह के दुखों को हंसते हुए सहन करता है। तप धर्म का दूसरा उद्देश्य इंद्रियजय है। इच्छाओं के निरोध को तप कहते हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से सभी राग और द्वेषों के त्याग से अपने शुद्ध आत्मस्वभाव में लीन होना उत्तम
तप है। 

व्यावहारिक दृष्टि से अनशन व्रतादि तप हैं। जैन दर्शन में तप और तपस्या को बहुत महत्व दिया गया है। भोगवादी दृष्टिकोण वाले मनुष्य हमेशा दुखी ही रहते हैं। ठीक इसके विपरीत जो जीवन में स्वयं ही तप को अपनाता है, उसे कोई दुखी नहीं कर सकता। 

सभा में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी उपस्थित थे।

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