सद्गुरु आत्मगुणों के रक्षक व अंतरंग शत्रुओं के नाशक हैं: आचार्यश्री प्रभाकरसूरी
गुरु के प्रति सम्मान का अर्थ उनके प्रति सत्कार का भाव है
गुरु बिना संसार रूपी भव सागर पार करना मुश्किल है
बेंगलूरु/दक्षिण भारत। शहर के महालक्ष्मी लेआउट स्थित चिंतामणि पार्श्वनाथ जैन मंदिर में चातुर्मासार्थ विराजित आचार्यश्री प्रभाकरसूरीश्वरजी ने अपने प्रवचन में कहा कि जिन मंदिर में जाने का विचार भी मन में आने पर एक उपवास का फल मिलता है। जिन परमात्मा के मंदिर की ओर चलने पर बेले की तपस्या का लाभ मिलता है।
दर्शन करने से एक मास की तपस्या का लाभ मिलता है। पूजा करने से एक हजार वर्ष की तपस्या का फल मिलता है तथा स्तुति इत्यादि से अनंतगुणा फल मिलता है अतः प्रभु भक्ति द्वारा तप तथा पुण्य का उपार्जन होता है।उन्होंने कहा कि गुरु के प्रति सम्मान का अर्थ उनके प्रति सत्कार का भाव है। हृदय के भीतर गुरु सम्मान का भाव होता है तो वह व्यक्ति स्वत: विनय हो जाता है। गुरु की भक्ति, सेवा आत्मा को वीतराग परमात्मा के साथ जोड़ती है।
ज्ञान, ध्यान, तप व जप की साधनाएं गुरु के प्रति समर्पण भाव के बाद ही फलीभूत होती हैं। सद्गुरु आत्मगुणों के रक्षक व अंतरंग शत्रुओं के नाशक हैं। गुरु बिना संसार रूपी भव सागर पार करना मुश्किल है।
संतश्री ने कहा कि सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चरित्र आत्मा के सबसे प्रधान गुण हैं। इन ही गुणों के कारण आत्मा सब दुःख, चिंता व्याकुलता से छूट कर अजर अमर अविनाशी हो जाती हैं, अतः इन तीनों गुणों को हितकारी समझ कर इन्हें अपने हृदय में मान्यता देनी चाहिए। मनुष्य में बड़प्पन, पूज्यता, मान्यता अभिमान करने से नहीं अपितु विनय भाव को ग्रहण करने से आते हैं।
प्रवचन में मुनिश्री महापद्मविजयजी, पद्मविजयजी, साध्वी तत्वत्रयाश्रीजी, गोयमरत्नाश्रीजी व परमप्रज्ञाश्रीजी भी उपस्थित थे।


